…और टूट गए हैं कुम्हार
कुम्हार आेम प्रकाश का कहना है कि दीपों की जगह बाजार दीपोत्सव पर्व की तरह उमंग से रोशन है। शॉपिंग कॉम्प्लेक्स और उंची-उंची इमारतों को झालरों ने रोशन कर दिया है। एेसे में दीपों के पर्व पर दीप का निर्माता कुम्हार उदास क्यों न हो। टूटे हुए मनसे चाक चलाए जा रहा है। उनका कहना है कि दीपावली नजदीक आते ही पूरा परिवार दीये बनाने की तैयारी में जुट जाता है लेकिन त्यौहार करीब आने के बाद दीयों की मांग नहीं होने से सभी निराश होकर अंदर से टूटने लगते हैं।मिट्टी के साथ…. कुम्हार का पसीना और आंसू भी लगा होता है
राकेश ने बताया कि मिट्टी के दीये बनाने में उन्हें और उनके परिवार को कितनी मेहनत करनी पड़ती है। ५ किमी दूर साइकिल में जाकर वे मिट्टी लेकर आते हैं। इसके बाद इसे भीगाने के बाद काफी मसला जाता है। इसके बाद सतह पर आने वाली चिकनी मिट्टी को निकाला जाता है। इसमें रेत की निश्चित मात्रा मिलाने के बाद बर्तन व दीये बनाए जाते हैं। इसके बाद भी उनकी स्थिति लगातार गिर रही है।
मॉल में चिल्हर पैसे छोडक़र आने वाले दीये के लिए करते हैं मोलभाव
कुम्हारों का कहना है कि वे एक दीये २ रुपए में बेच रहे हैं। ज्यादा लेने पर दाम कम भी कर देते हैं। इसके बाद भी वे कुछ लोग मोलभाव करते हैं। इतनी छोटी सी कमाई में दियों को किसी भी हाल में बेचने के लिए भाव कम करना पड़ता है। वे कहते हैं हम सोचते हैं कि व्यापारियों को ही सीधे दिए बेच दे क्योंकि वे सामान महंगा बेचना और ग्राहकों से मोलभाव करना अच्छा नहीं लगता। उन्होंने तंज कसते हुए कहा कि ये वही लोग हैं, जो यहां मॉल में सामान लेने के बाद बचे चिल्लर पैसों को वहीं छोडक़र आ जाते हैं। वे सडक़ पर सामान बेचते हैं इसलिए उनसे मोलभाव होता है। जबकि बड़े बड़े दुकानों में पैसे ज्यादा देने को वे परम्परा समझते हैं।
आने वाली पीढ़ी इसे सीखने को तैयार नहीं
आेम बताते हैं कि इस काम में कोई बचत नहीं है पूरा परिवार दिन भर इस काम में लगे रहता है। इसके बाद भी इतनी कमाई नहीं है की त्यौहार भी ठीक से मना पाए। बच्चों को काम सीखने के लिए कहता हूं लेकिन कोई भी तैयार नहीं है उन्हें पता है कि इस काम से अपना गुजारा नहीं चलाया जा सकता।