खेती के लिए पांच एकड और रहने के लिए ६०० वर्गफीट जगह देने का था वादा
दरअसल किसानों के विस्थापन के समय सरकार ने किसानों से वादा किया था कि सभी परिवार को पांच एकड़ जमीन दिया जाएगा और रहने के लिए ६०० वर्गफीट की जगह भी। २००७ में उन्हें विस्थापित किया और ९ अगस्त २००८ को प्रदेश के पूर्व मुखिया डॉ. रमन सिंह ने बस्तर के सबसे बड़े बांध कोसारटेडा का लोकार्पण किया था। इस बांध के निर्माण के बाद सरकार इन किसानों को ही भूल गई। मुआवजे में भी २० साल पुराने प्लान के तहत राशि प्रदान की गई। जिसकी वजह से ग्रामीण नाराज हैं।
ग्रामीणों का छलका दर्द, कहा कभी मालिक थे सरकार ने मजदूर बना दिया
विस्थापन के बाद पखनाकोंगेरा में रह रहे परिवार के बीच जैसे ही पत्रिका की टीम पहुंची। यहां लोगों की भी भीड़ जमा हो गई और उनका दर्द छलक आया। इन सभी लोगों ने बताया कि उन्हें आज तक सरकार ने वादे के अनुरूप खेती करने व रहने के लिए जमीन नहीं दी है। उन्होंने बताया कि सरकार से लेकर प्रशासन के पास वे पहुंच चुके हैं, लेकिन आज तक मांग पूरी नहीं हुई है। उनका कहना है कि कल तक खुद की खेती हुआ करती थी, दूसरे लोग उनके यहां काम करने आते थे, लेकिन आज वे दूसरे की खेती में मजदूर बनकर काम कर रहे हैं। बदले में मिल रही दिहाड़ी से घर चल रहा है।
बरसात के तीन माह बिताया एक शेड के नीचे
गोपीराम आज भी जब उन दिनों को याद करते हैं, तो सिहर उठते हैं। उन्होंने बताया कि जब उन्हें प्रशासन ने उनकी जमीन से भगाया तो उनके पास रहने के लिए कोई जगह नहीं थी। उपर से उनके परिवार में ४२ लोग थे। किसी तरह उन्होंने मदद मांग कर शेड को बल्लियों के सहारे लटकाकर पूरे तीन माह निकाले। उन्होंने बताया कि केवल वे नहीं बल्कि उनका पूरा परिवार इसी शेड के नीचे पूरे तीन माह गुजारे।
शरीब बूढ़ा हो गया लेकिन उम्मीद नहीं
गांव वालों से बात चल ही रही थी, के इसी बीच ६५ वर्षीय अमीरनाथ कश्यप ने कहा कि उनका शरीर जरूर बूढ़ा हो चुका है कि उनकी उम्मीद नहीं। वे इसके लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, और यह तब तक जारी रहेगी जब तक सरकार द्वारा किया गया वादा पूरा न हो जाए। रहने के लिए दी थी दलदली जमीन अमीरनाथ ने आगे कहा कि शासन, प्रशासन ने मिलकर उनकी जमीने छीन ली। इसके कुछ सालों बाद उन्होंने जो जमीन दी वह बांध से कुछ दूरी पर ही था। उन्होंने बताया कि वहां दलदली जमीन की शिकायत थी, जहां रहना नामुनकिन था। इसकी शिकायत तात्कालीन कलक्टर से भी की गई थी, और दूसरी जगह जमीन देने पर सहमति बनी थी।
घर में रह तो रहें हैं, लेकिन अपना नहीं कह सकते
धनुराम ने बताया कि जब बांध के लिए उनकी जमीन से प्रशासन ने उन्हें खदेड़ा था। तो वे पास के ही क्षेत्र सालेमेटा में रहने लगे थे। कुछ दिन बाद ही उन्होंने पूरे परिवार के श्रमदान से यह घर तैयार किया था। १० साल हो गए लेकिन आज भी इस घर को अपना नहीं कह सकते। क्योंकि इस घर के न तो कागज उनके पास हैं, और न ही अन्य कागजाद। इसलिए कभी भी हटाए जाने का डर हमेशा लगे रहता है।