माओवादी की चलती है सरकार
दरअसल यह गांव बेहद अंदरूनी इलाके में है। यहां तक सरकार की पहुंच भी नहीं है। इसलिए यहां माओवादियों की अच्छी खासी दखल है। ग्रामीणों ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि यहां हर चीज पर माओवादियों का दखल है। इस जगह के अंदरूनी होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि यहां दूर-दूर तक सरकारी भवन न कोई स्कूल नजर आया।
रास्ते में नजर आए बूबी ट्रैप और माओवादियों का मोर्चा भी दिखाई दिया
जो आदिवासी गंगालूर आए उनके साथ वापस उन्हीं के गांव पहुंचने के लिए निकले। ग्रामीणों ने बताया कि सडक़ तो बननी थी लेकिन काम काफी समय से रूक गया है। कुछ दूर चलने के बाद एक ग्रामीण ने ध्यान से चलने की नसीहत देते हुए कहा कि यहां माओवादियों ने बूबी ट्रैप लगाकर रखा है, दूसरी तरफ से होकर आना पड़ेगा। उसने बताया कि इस जंगल में ऐसे कई बूबी ट्रैप माओवादियों ने जवानों को घायल करने के उद्ेश्य से लगा रखें है। वहीं कुछ दूर आगे बढऩे के बाद एक उंचाई सी जगह पर पहाड़ी की चोटी मिली। यहां पत्थरों से घेरा किया हुआ था। पूछने पर बताया कि यह माओवादियों का मोर्चा है। जब वे यहां माओवादियों को देख लेते हैं तो वही आस-पास छिप जाते हैं, वो भी तब तक जब तक वे चले नहीं जाएं। दहशत के ऐसे माहौल में जीने को मजबूर हैं यहां के ग्रामीण।
14 किमी की पहाड़ी का रास्ता है, तीन बड़े नाले को पार कर पहुंचते हैं गंगालूर
माओवादी मोर्चे से आगे बढ़े ही थे कि एक बड़ा नाला सामने था। कमर तक पानी को पार करने के बाद इसी तरह तीन नाले और मिले। जिसे पार करने के बाद यह आदिवासी गांव पहुंचते हैं। पहुंचने पर सबसे पहले गांव पड़ता है एड़समेटा। यहां से कुछ दूरी पर पेद्दापाल गांव हैं।
इसी डर के बीच ग्रामीण गंगालूर से ही लाते हैं राशन
ऐसा नहीं है कि गंगालूर वे केवल राशनकार्ड नवीनीकरण के लिए ही पहुंचे हैं। बल्कि उन्हें हर छोटी बडी जरूरतों के लिए गंगालूर पर ही निर्भर रहना पड़ता है। जब राशन भी लाना रहता है तो उनके यहां राशन की दुकान नहीं होने की वजह से वे इसी खतरे के बीच से होते हुए गंगालूर से राशन ले जाते हैं।