सदियों से रहा है नाता, जीआई टैग के लिए किया जाना चाहिए दावा
वैज्ञानिकों का कहना है कि विरासत में मिले इस पेय पदार्थ के लिए बस्तर को ज्योग्राफिकल इंडिकेशन के लिए दावा करना चाहिए। महुआ में मादकता होने का भान सदियों से देश के अधिकतर राज्यों में रहा है। पूर्वज इसे अपने अपने तरीकों से विविध अवसरों पर नशापान के तौर पर उपयेाग में लाते रहे हैं। बस्तर में महुआ आदिवासी संस्कृति का अहम हिस्सा है। जन्म से लेकर मृत्यु संस्कार व सामाजिक- सांस्कृतिक आयोजन में इसकी शराब परोसना आम बात है। धाार्मिक अनुष्ठानों में इसका तर्पण करना आवश्यक माना गया है। इसके अलावा यह आदिवासियों की आजीविका का एक प्रमुख जरिया भी है।
40 प्रतिशत है एल्कोहल
खुशी की बात यह है कि महुआ को इस क्वालिटी तक पहुंचाने का श्रेय देश के गोवा प्रांत की डिस्टीलरीज को हासिल हुआ है। डेस्मंडजी नाम के इस डिस्टीलरीज ने महुआ के फूल से बनी शराब को स्वच्छता व गुणवत्ता के पांच पैमाने पर शुद्ध करते हुए इसे दो बार डिस्टील कर इसकी मादकता को बेहद बढ़ा दिया। डिस्टीलरीज ने इसके एल्कोहल की मात्रा को दस से बढ़ाते हुए 40 प्रतिशत तक पहुंचा दिया है। एक ओर बस्तर में जहां महुआ की शराब प्लास्टिक की बोतल व अन्य बोतलों में भरकर बीस से सौ रुपए तक बेची जा रही है वहीं डीजे ने इस तरीका को छोड़कर इसे अंतरराष्ट्रीय मापदंड के अनुरुप बनाया है। वैल्यूएडीशन के बाद इसके दाम भारतीय करेंसी में नौ सौ रुपए से अधिक पर निर्यात किया जा रहा है।
प्राकृतिक शर्करा है
महुआ समेत अन्य फलों में जो मिठास होती है उसका कारण उसमें पाई जाने वाली शर्करा है। आर्मी जैसे फील्ड में विशुद्ध पदार्थ भेजा जाता है जिससे वे फिट रहें। हाइजिनिक तरीके से डिस्टील करने पर इसकी मादकता बढ़ गई होगी।
डा. आदिकांत प्रधान, कृषि वैज्ञानिक
लड्डू भी बन रहे
शहीद गुंडाधुर कृषि कालेज के डीन डॉ. एससी मुखर्जी ने बताया कि, महुआ को लेकर ग्रामीण बेहद उत्साहित रहते हैं। वे इसके फूल का विविध तरीके से सेवन करते हैँ। फिलहाल इसके लड्डू तक बनाए जा रहे हैं। सरकार यदि इसके औषधीय गुण पर यदि शोध करवाए तो इसके अन्य प्रयोजन भी आदिवासियों के लिए लाभकारी होंगे। कालेज में भी इस पर शोध की योजना कुछ समय तक चली थी, विविध कारणों से उस पर बे्रक लग गया।