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राजस्थान में यहां तीन जगह होती थी ऊंट की कुर्बानी! चलती थी तोपे, निकलता था जुलूस

locationजयपुरPublished: Sep 02, 2017 11:17:00 am

Submitted by:

dinesh

मुबारक महल के सामने मैदान में लोगों के लिए ऊंट की कुर्बानी होती थी। बाकी दो स्थानों पर होने वाली कुर्बानी में कुछ चुनींदा लोग ही शामिल हुआ करते थे…

camel sacrifice
जयपुर। नवाबी शहर टोंक में ईदुलजुहा पर्व पर डेढ़ दशक पहले तक ऊंट की कुर्बानी की रस्म अदा की जाती थी, लेकिन अब ये रस्म यादें बनकर रह गई है। दरअसल डेढ़ दशक पहले ही सरकार ने इस पर रोक लगा दी। ऐसे में जिला प्रशासन ने ये रस्म अदा करने वाले लोगों को पाबंद कर दिया और इसके बाद से ऊंट की कुर्बानी टोंक में नहीं हो रही है। नवाबी रियासत से जुड़े टोंक के लोगों का कहना है कि टोंक में ऊंट की कुर्बानी तीन जगह हुआ करती थी। इसमें बहीर स्थित ईदगाह, नजर बाग तथा मुबारक महल शामिल है।
Sunahari Kothi
चलती थी तोपे
ईद की नमाज के बाद तोपे चलाई जाती थी। ये परम्परा कई सालों से चली आ रही थी, लेकिन दो दशक पहले हुए एक हादसे के बाद तोपे चलाना बंद कर दिया गया।
ईदगाह कोठी से आते थे
उमर नदवी ने बताया कि टोंक रियासत के नवाबों ने ईदगाह के समीप ईदगाह कोठी का निर्माण कराया था। इसमें वे मेहमानों को ठहराया भी करते थे। साथ ही ईद पर नजरबाग से रवाना होने वाला जुलूस यहीं आकर रुकता था। इसके बाद नवाब कुछ देर आराम करने के बाद ईदगाह में आया करते थे। आजादी से पहले उनका जुलूस नजरबाग से तालकटोरा, सिविल लाइन होते हुए ईदगाह पहुंचता था, लेकिन आजादी के बाद से ये जुलूस मुख्य बाजार से जाने लगा।
Mubarak Mahal
ईदगाह तथा नजरबाग में ये कुर्बानी बतौर पर्दे में की जाती थी, लेकिन मुबारक महल के सामने मैदान में लोगों के लिए ऊंट की कुर्बानी होती थी। बाकी दो स्थानों पर होने वाली कुर्बानी में कुछ चुनींदा लोग ही शामिल हुआ करते थे। बुजुर्ग बताते हैं कि टोंक नवाबी रियासत के नवाब अमीरूद्दौला समेत अन्य नवाब ईदगाह में ईदुलजुहा की नमाज अदा करने के बाद एक ऊंट की कुर्बानी वहीं किया करते थे।
इसके बाद वे लवाजमे के साथ जुलूस के रूप में मुबारक महल पहुंचते। यहां से वे ऊंट को हलाल करने के लिए अपने साथ हाथ में नेजा लेते और ऊंट की गर्दन में डाल देते। इसके बाद ऊंट को जमीन पर गिरा दिया जाता था। बाद में नवाब वहां से रवाना हो जाते। इसे देखने के लिए लोगों की भीड़ जमा हो जाया करती थी। ऊंट के जमीन पर गिरने के बाद लोग गर्दन के तीन टुकड़े करते और बाकी शरीर का अपना-अपना हिस्सा लेकर रवाना हो जाते।
मौलाना उमर मियां बताते हैं कि ईदुलजुहा पर खुदा कुर्बानी को पसंद करते हैं। ये उसी पर जायज है जो इसकी हैसियत रखता है। इस कुर्बानी का मकसद भी ये था कि उन दिनों लोगों के पास रुपए नहीं हुआ करते थे। लिहाजा कई लोग तो सालभर गोश्त नहीं खाया करते थे। जबकि ये लजीज व्यंजन हर किसी की पसंद है। ऐसे लोगों के लिए इस रस्म की शुरुआत की गई ताकि हर जरूरतमंद को ऊंट का गोश्त मिल सके और वह इसे खा सके।
Bakra Eid
ऊंट की कुर्बानी में भी कई तरह के नियमों का पालना करना होता था। मसलन ऊंट सेहतमंद तथा कम से कम 5 साल से कम उम्र का नहीं होना चाहिए। इसके अलावा आज कल भैंस, बकरा, दुम्बे व भेड़ की भी कुर्बानी दी जाती है, लेकिन इसमें भी भैंस की उम्र दो साल तथा अन्य छोटे जानवरों की उम्र कम से कम एक साल व सेहतमंद होना जरूरी है।
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