ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया एंटी सोशल लोगों के हाथों में चला गया है और अशिष्ट, अश्लील, असभ्य व्यवहार कर रहा है। इससे हर संवेदनशील इंसान का दुखी होना लाजिमी है। हिमाचल में तो चुनाव निपट गए, गुजरात में होने वाले हैं। फिर खेल शुरू हो गया है, एक-दूसरे को नीचा दिखाने का। बिना तथ्यों की जांच-पड़ताल के पोस्ट आगे बढ़ाने का। इनके साथ चल रहा है कमेंट्स का सिलसिला। एक-दूसरे से गाली-गलौच करने का। खूब हो रहा है तमाशा। हम खामोश देख रहे हैं। करें भी क्या…!
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है। सेंसरशिप की बात हो नहीं सकती है। कहां ले जा रहा है यह कथित नया मीडिया? क्या यह अब भी सोशल है? क्या यह आम आदमी की प्रतिक्रिया का प्रतिबिंब है? हम यह कह सकते हैं कि इस पर अब आम आदमी की आवाज से ज्यादा हिडन एजेंडा काम कर रहा है। प्रोपेगंडा का यह नया हथियार पत्रकारिता के निश्चित मानकों पर खरा नहीं उतरता है।
‘विकास गांडो थयो छे’ यानी ‘विकास पागल हो गया है’, कांग्रेस के सोशल मीडिया के इस कैंपेन का जवाब भाजपा ने ‘हूं छू विकास, हूं छू गुजरात’ से दिया। ‘गरजे गुजरात’ का जवाब कांग्रेस ने ‘जो गरजते हैं, वो बरसते नहीं’ से दिया है। भाजपा ने ‘धन्यवाद नरेंद्र भाई’ कैंपेन चलाया था, उसके जवाब में कांग्रेस ने ‘धन्यवाद मोटा साहेब’ कैंपेन चलाया। यह सब तो खुले में चल रहा है। सब जानते हैं कि ये सोशल मीडिया के कैंपेन हैं, पर इसके अलावा ग्रुपों में जो शुरू हो चुका है, वहां मर्यादा और नैतिकता का चीरहरण हो रहा है। दोनों के हजारों ग्रुप बने हुए हैं, जिनके माध्यम से पूरी स्ट्रेटजी के तहत सब पोस्ट वायरल हो रहे हैं। समझ से परे है कि यह कैसा मीडिया है।
इसके साथ ही सीडी का बाजार भी गरम हो गया है। एक की तो बाजार में आ ही गई है। जाने तरकश में कितने और तीर अभी बाकी हैं। सब कुछ परोसा जा रहा है। अब चुनाव ठोस मुद्दे पर कम, ओछे हथकंडों पर ज्यादा लड़ा जा रहा है। चुटकले बन रहे हैं। कसीदे भी पढ़े जा रहे हैं। जीएसटी से भी खूब मसाला मिल रहा है। कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी जा रही है, खूब तड़का लगाया जा रहा है। जाति-धर्म के नुस्खे भी खूब बंट रहे हैं और हिट हो रहे हैं। तीन पीढिय़ों का हिसाब-किताब भी खंगाला जा रहा है।
यह मीडिया न्यूज को नूडल बनाकर परोस रहा है। खबरों को भी गड्ड-मड्ड कर रहा है। तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति की कुचेष्टा रच रहा है। यहां हर पोस्ट का अपना एक एजेंडा होता है। ये इमेज बिल्डिंग और डिस्ट्रक्शन का काम बखूबी करते हैं। किसी को पप्पू, तो किसी को गप्पू बना दिया गया है। इन्होंने तो बना दिया, अब चुनाव आयोग देखता रहे। हर ऋतु में खिले रहने वाले सदाबहार फूल की तरह यह खेल भी हर मौसम में खेला जाता है। पर चुनाव के मौसम में ये पूरे शबाब पर होता है। गुजरात में अभी इसकी कली-कली खिली हुई है।
आप कोई भी हथकंडा अपना लीजिए, ये पब्लिक है सब जानती है। जनता जनार्दन सोशल और एंटी सोशल के फर्क को खूब पहचानती है। इसकी लाठी जब चलती है, तो आवाज नहीं करती है।