सियासत में गिरते भाषा के स्तर के लिए दोष सोशल मीडिया पर थोपा जाता है। गहराई में जाएं तो ऐसा लगता नहीं, क्योंकि…
-राजेंद्र शर्मा- सियासत में मर्यादा अब इतिहास की बात हो चुकी है। राजनीति में विपक्षियों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों में लगातार आ रही गिरावट कहां थमेगी कहा नहीं जा सकता। अलबत्ता, कहां तक पहुंचेगी, सोचकर ही सिहरन-सी दौड़ जाती है। इस विषय पर हर सियासतदां खुद को पाक-साफ जताने की गरज से दूसरे को कोसता और मर्यादित आचरण की नसीहत देता दिखता है। बगैर खुद के गिरेबान में झांके। हाल ही चुनाव आयोग को दखल देना पड़ा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए इससे बड़ी शर्मनाक बात क्या होगी। आयोग ने गुजरात चुनाव बीजेपी के विज्ञापन में ‘पप्पू’ शब्द के इस्तेमाल पर रोक लगाई है। है न शर्मनाक।
राजनीति में मुखालिफों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले शब्दों में गिरावट तो कई बरसों से आ रही है, लेकिन स्थिति चुनाव आयोग के हस्तक्षेप तक पहुंचेगी, कल्पना नहीं की होगी किसी ने। अमर्यादित शब्द या कहें अपशब्द का प्रयोग यूं तो युगों से हो रहा है, लेकिन हाल ही इसमें आई जबरदस्त गिरावट सोचनीय है। दरअसल, शब्द और अपशब्द सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विभाजित किए जाते हैं। शब्द सभ्यता और अपशब्द असभ्य आचरण का प्रतीक माना जाता है। गौर करें तो संसार के हर कार्य का साधन शब्द ही है। शब्द इनसान को सभ्य बनाते हैं, तो अपशब्द संस्कार में रह गई कमी को उजागर करते हैं। सीधे से मानें तो शब्द पूर्ण भौतिक जगत् के प्रतीक प्रतिनिधि हैं।
सोशल मीडिया की भूमिका… सियासत में गिरते भाषा के स्तर के लिए दोष सोशल मीडिया पर थोपा जाता है। गहराई में जाएं तो ऐसा लगता नहीं, क्योंकि जब सोशल मीडिया नहीं था, तब भी चर्चिल ने गांधी जी के लिए ‘अधनंगा फकीर’ और शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के लिए सौ अपशब्दों का प्रयोग भरी सभा में किया था। तो, कौरवों की सभा में ‘अंधे का बेटा अंधा’ कहने वाली द्रौपदी को दुशासन और दुर्योधन ने कितने निम्न स्तरीय अपशब्दों से संबोधित किया था। तो कई साल पहले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए वाजपेयी सरकार में वरिष्ठ मंत्री रहे नेता द्वारा ‘शिखंडी’ शब्द का प्रयोग भी तब किया गया, जब सोशल मीडिया नहीं था। जाहिर है, सोशल मीडिया अकेला अपशब्दों के लिए दोषी नहीं है।
अलबत्ता, हाल ही के वर्षों में सियासी दलों ने जो आईटी सेल गढ़े हैं और उनमें युवाओं की फौज को रोजगार दिया है, वह प्रतिद्वंद्वियों पर अपशब्दों के इस्तेमाल की शर्त पर। स्पष्ट है, सोशल मीडिया नहीं सियासत का गिरता स्तर है दोषी। शब्द निकलते तो नेताओं के मुखारविंद से हैं, सोशल मीडिया की शोभा तो बाद में बढ़ाते हैं। और हां, सोशल मीडिया पर अपशब्दों का प्रयोग बिना शह के तो नहीं होता न! चाहे, वह ‘कुतिया की मौत पर पिल्लों के बिलबिलाने’ का ट्वीट हो या फिर कुछ और…।
कैसे-कैसे अपशब्द… याद आता है इंदिरा गांधी के वर्चस्व का वह जमाना, जब चुनाव के दौरान विपक्ष के कार्यकर्ता ‘गली-गली में शोर है…चोर है’ और ‘नसबंदी के तीन दलाल…’के साथ ही तमाम तरह के अपशब्दों से भरे नारे इंदिरा गांधी, उनकी नीतियों और उनके निकटवर्तियों के लिए प्रयोग करते थे। वर्तमान में देखें तो 2002 में चुनाव टालने को लेकर चल रहे आरोप-प्रत्यारोप के दौर में गुजरात के तत्कालीन कार्यवाहक मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुख्य चुनाव आयुक्त लिंगदोह के निर्णय को उनके घर्म से प्रेरित बताया था और साथ ही आरोप लगाया था कि वे काँग्रेस अध्यक्ष के करीब हैं। तब लिंगदोह ने इसे घृणित और शर्मनाक बताया था। इसके बाद तो निरंतर शब्दों का…नहीं-नहीं अपशब्दों का स्तर गिरता गया। बात ‘विदेशी बहू’ से लेकर ‘मौत के सौदागर’ के रास्ते होती हुई सियासत को कई अमर्यादित शब्दों का सफर करा लाई। वर्ष 2014 में हुए आमचुनाव में तो यह स्तर रसातल को छू गया।
इस चुनाव और इनके बाद हुए चुनावों में ‘डीएनए’, ‘बेटी सेट करने’, ‘पाकिस्तान में पटाखे’, ‘शहजादा’, ‘फेंकू’, ‘शाह-जादा खा गया’, ‘चौकीदार या भागीदार’, ‘जंगली’, ‘बदनसीबवाला’, ‘राक्षस’, ‘ह-रामजादे’ जैसे अपशब्दों ने जहां रैलियों में तालियां बजवाई, वहीं लोकतंत्र की गरिमा भी गिराई। याद करें देश की राजनीति में कभी ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल…’ जैसे गानों से प्रेरणा ली जाती थी। जहां, बापू, चाचा नेहरू, पंडित जी, लौह पुरुष, दुर्गा, लौह महिला जैसे गरिमामय शब्दों का इस्तेमाल होता था, वहीं अब ‘पप्पू कांट डांस ***** ..’ जैसे गानों से कार्यकर्ताओं को प्रेरित किया जाता है।
राजस्थान के गृहमंत्री के बिगड़े बोल… राजस्थान के गृहमंत्री गुलाब चंद कटारिया ने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। जून 2016 मेंं कटारिया ने चूरू में ‘जिला बूथ वर्कर मीट’ के दौरान 32 मिनट के भाषण में कई बार अपशब्दों का प्रयोग किया था। बाद में बात बढ़ी तो खेद जताया था। प्रदेश की राजधानी जयपुर में भी राजनीतिक कार्यकर्ताओं और नेताओं का बड़े नेताओं के लिए अपशब्दों का प्रयोग आम है। खासकर, टीवी चैनलों पर बहस के दौरान।
बहरहाल, अपशब्द… रैलियों में बजने वाली तालियों…सोशल मीडिया पर मिलने वाले छद्म समर्थन के कारण लोकप्रियता हासिल करने के शार्टकट बन गए हैं या फिर स्वयं की खामियों को उजागर न होने देने की कोशिश की कुण्ठित निराशा द्योतक मात्र हैं। अमर्यादित सियासत सत्ता की लोलुपता में मदांधता उजागर करती है, जो वर्तमान में स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही है।