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क्या मंत्री व अफसर बलात्कार-हत्या जैसे अपराधों पर कर सकते हैं टिप्पणी?

locationजयपुरPublished: Oct 21, 2019 01:11:49 am

Submitted by:

Vijayendra

संविधान पीठ 23 अक्टूबर से करेगी सुनवाई: यह तो राजनीतिक षड्यंत्र है, ऐसे बयानों की वैधानिकता और इन पर रोक लगाने पर होगा विचार

क्या मंत्री व अफसर बलात्कार-हत्या जैसे अपराधों पर कर सकते हैं टिप्पणी?

क्या मंत्री व अफसर बलात्कार-हत्या जैसे अपराधों पर कर सकते हैं टिप्पणी?

नई दिल्ली. यह तो राजनीतिक षड्यंत्र है। देश में राजनेताओं का यह एक ऐसा वक्तव्य है, जिसे बचाव में सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाता है। फिर मुद्दा चाहे सियासत का हो या किसी संगीन अपराध का।
बुलंदशहर के एक चर्चित बलात्कार कांड पर तत्कालीन यूपी सरकार के मंत्री आजम खान के ऐसे ही बयान के बाद उत्पन्न संवैधानिक प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ 23 अक्टूबर से सुनवाई करने जा रही है। तब आजम ने कहा था, ‘यह राजनीतिक षड्यंत्र है और इसके सिवा कुछ नहीं। अब पीठ के सामने केंद्रीय प्रश्न होगा, ‘क्या सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग या सत्ता-शासन का कोई प्राधिकारी बलात्कार, सामूहिक बलात्कार या हत्या जैसे संगीन अपराधों पर इस तरह टिप्पणी कर सकता है?
संविधान पीठ की अगुवाई जस्टिस अरुण मिश्रा करेंगे। उनके अलावा जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत सरन, जस्टिस एमआर शाह और जस्टिस रविंद्र भट्ट भी पीठ में शामिल हैं।
पीडि़त के पिता पहुंचे थे सुप्रीम कोर्ट
बुलंदशहर बलात्कार कांड की पीडि़ता के पिता ने आजम खान की इस टिप्पणी के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। अगस्त 2016 में तत्कालीन जस्टिस दीपक मिश्रा की पीठ ने कुछ महत्त्वपूर्ण प्रश्न विचार के लिए तैयार किए। हालांकि इस दौरान आजम ने माफी मांग ली। पीठ ने माफी को स्वीकार तो कर लिया, लेकिन कुछ प्रश्नों को विचार के लिए संविधान पीठ को भेज दिया।
ऐसे बयान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आते हैं या उसे तोड़ते हैं?

जब पीडि़त बलात्कार या हत्या जैसे संगीन अपराधों के आरोप में व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के खिलाफ एफआइआर दर्ज करा चुका हो तो क्या सार्वजनिक पदों पर बैठे लोग या सत्ता-शासन का कोई प्राधिकारी ऐसी टिप्पणी कर सकता है? जबकि विचाराधीन अपराध से उसका लेना-देना नहीं।
क्या नागरिकों की रक्षा व कानून-व्यवस्था के लिए जिमेदार ‘राज्यÓ को ऐसी टिप्पणियों की अनुमति देनी चाहिए, जो निष्पक्ष जांच और पूरी व्यवस्था को लेकर पीडि़त के मन में अविश्वास पैदा करे?
क्या इस तरह के बयान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आते हैं या स्वीकृत दायरे की सीमा से बाहर हैं?
क्या ऐसी टिप्पणियां (जो खुद के बचाव में नहीं की गईं) संवैधानिक करुणा और संवेदशीलता की अवधारणा के खिलाफ नहीं?
न्यायमित्र हरीश साल्वे के प्रश्न भी शामिल
क्त क्या संविधान के अनुच्छेद 75 (3) और अनुच्छेद 164 (2) के तहत सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के तहत किसी मंत्री के ऐसे बयान को सरकार का ही बयान माना जा सकता है?
क्त क्या मंत्री या व्यापक संदर्भ में सरकार के किसी प्राधिकारी का ऐसा बयान संविधान के भाग तीन में प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन है? ऐसे में क्या इस तरह के बयान पर कार्रवाई होनी चाहिए?
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