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चिपको आंदोलन जो बना पर्यावरण बचाने की मुहिम… आज गूगल ने डूडल बना कर दिया सम्मान

locationजयपुरPublished: Mar 26, 2018 12:05:11 pm

Submitted by:

Nidhi Mishra

चिपको आंदोलन जो बना पर्यावरण बचाने की मुहिम… आज गूगल ने डूडल बना कर दिया सम्मान

Chipko Movement 45th anniversary, Chipko Andolan in Hindi

Chipko Movement 45th anniversary, Chipko Andolan in Hindi

जयपुर। विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन को आज 44 साल पूरे हो गए। गूगल ने आंदोलन की 45वीं वर्षगांठ पर डूडल बना कर उसे सम्मान देने के साथ ही सेलिब्रेट भी किया है। आपको बता दें कि चिपको आंदोलन की शुरुआत 18वीं शताब्दी में राजस्थान के जोधपुर जिले से हुई थी। जोधपुर जिले के खेजड़ली गांव में तत्कालीन राजा ने पेड़ों को काटने के आदेश जारी कर दिए थे। इसके बाद भारी संख्या में विश्नोई समाज के लोग पेड़ों से चिपक गए। इस आंदोलन के बाद महाराजा को अपना आदेश वापिस लेना पड़ा था।
आजादी के बाद इस आंदोलन की झलक दिखाई दी साल 1970 में… इस आंदोलन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हिमालयन रेंज में जंगल की कटाई पर 15 साल का बैन लगाने के कानून बनाना पड़ा। इसी के बाद 1980 का वन कानून भी बना और देश में पर्यावरण मंत्रालय का अस्तित्व सामने आया।
ऐसे शुरू हुआ चिपको आंदोलन

ये आंदोलन उत्तर प्रदेश की अलकनंदा घाटी पर स्थित मांडल गांव से अप्रैल 1973 में शुरू हुआ। जल्द ही ये आंदोलन प्रदेश के उन जिलों तक भी पहुंच गया, जहां हिमालयन क्षेत्र था। दरअसल सरकार ने खेल सामान बनाने वाली एक कंपनी को वन क्षेत्र में जमीन देने का निर्णय किया था। कंपनी यहां से पेड़ काटना चाहती थी। गांव वालों ने इसके विरोध में सारे पेड़ों को घेर लिया और उनसे चिपक गए। खास बात ये रही कि इस आंदोलन को लीड करने वाली महिलाएं थीं। इसके बाद आंदोलन को गांधीवादी कार्यकर्ता और पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट और उनके एनजीओ ‘दशोली ग्राम स्वराज्य संघ’ ने आगे बढ़ाया।
ये है पूरी कहानी

ये 1974 की बात है। जनवरी महीने में अलकनंदा के रैंणी गांव के लोगों को पता चला कि उनके क्षेत्र से 2451 पेड़ काट दिए जाने वाले हैं। गांववासी इस बसत से गुस्सा हो गए। हुआ ये था कि 1970 में अलकनंदा में भयंकर बाढ़ आई थी। इस बाढ़ ने जनजीवन और जंगल को बुरी तरह तबाह किया था। इसके बाद वहां के लोग पर्यावरण संरक्षण के लिए खड़े हुए। पर्यावरण संरक्षण के लिए आगे आने वाले लोगों में चंडी प्रसाद भट्ट, गोबिंद सिंह रावत, वासवानंद नौटियाल और हयात सिंह जैसे लोग थे. 23 मार्च 1974 का वो दिन था, जब रैंणी गांव में कटान के आदेश के खिलाफ रैली का आयोजन हुआ। ये रैली गोपेश्वर में हुई। इस रैली को एक महिला गौरा देवी लीड कर रही थी। यहां प्रशासन ने सड़क बनाते समय हुई हानि का मुआवजा देने की तारीख तय कर दी। इसके मुताबिक चमोली गांव में 26 मार्च को लोगों को मुआवजा लेने पहुंचना था।
मुआवजा देना था एक चाल
लोगों को उनके नुकसान का हर्जाना देना भी वन विभाग की एक सोची समझी चाल थी। 26 मार्च को गांव के पुरुषों को चमोली भेज कर ये लोग पीछे से वनों की कटाई करना चाहते थे। तय दिन सभी पुरुष चमोली पहुंचे और पीछे से ठेकेदार देवदार के जंगलों को नष्ट करने। इसे गांव की एक लड़की ने समझ लिया और गौरा देवी को बता दिया।
गौरा देवी महिलाओं संग पेड़ बचाने निकल पड़ीं

गौरा देवी उसी समय गांव की औरतों को लेकर जंगल की ओर निकल पड़ीं। कुछ ही देर में जंगल में एक ओर महिलाओं का दल था और दूसरी ओर मजदूरों का। ये मजदूर उस समय खाना बना रहे थे. गौरा देवी जोर से बोलीं, भाइयों ये जंगल हमारा मायका है। इससे हमें बहुत कुछ मिलता है। इसे काटने से आपदाएं आएंगी। आप खाना खाकर हमारे साथ वापिस चलो और पुरुषों के आने पर फैसला होगा।
गोली मार लो


ठेकेदार और वन विभाग के सामने अब नई मुसीबत थी। उन्होंने हर वो प्रयास किया जिससे महिलाएं डर जाएं। ठेकेदार ने जब बंदूक उठाई तो गौरा ने सीना तान कर कहा, ‘गोली मार कर काट लो हमारा मायका’, इसके बाद ठेकेदार और मजदूर डर गए। दूसरी तरफ गौरा की हिम्मत देख सभी औरतें पेड़ों से चिपक गईं। आखिरकार थक-हारकर मजदूरों को लौटना ही पड़ा। अगले दिन जब ये खबर चमोली पहुंची तो अखबार की हेडलाइंस बन गईं थीं।
चमोली जिले के एक आदिवासी परिवार में 1925 में जन्मी, गौरा को देश की रियल हीरो बन गई। उन्हें चिपको वुमन फ्रॉम इंडिया के नाम से जाना जाने लगा। केवल पांचवी कक्षा तक पढ़ी गौरा ने अपनी समझ से पर्यावरण संरक्षण की दिशा में एक नई नजीर पेश की।
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