गोपाष्टमी पर्व की कथा द्वापर युग से संबंधित है. माना जाता है कि इंद्र के कोप से गाय, ग्वालों और ब्रज वासियों की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पर्वत उठा लिया था। इसके आठवें दिन अर्थात कार्तिक शुक्ल अष्टमी को देवराज इंद्र ने अपनी पराजय स्वीकार की और भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांगी।
तब कामधेनु ने अपने दूध से भगवान श्रीकृष्ण का अभिषेक किया। गाय, ग्वालों को बचाने की वजह से इसी दिन से श्रीकृष्ण का नाम गोविंद पड़ा। ज्योतिषाचार्य पंडित नरेंद्र नागर के अनुसार मान्यता यह भी है कि इसी दिन से कृष्ण ने गाय चरानी शुरू की थी। ऋषि शांडिल्य ने इसके लिए मुहूर्त निकाला और पूजन के बाद श्रीकृष्ण को गायों के साथ जंगल भेजा।
एक अन्य कथा के अनुसार राधा भी गौ चारण के लिए जंगल जाना चाहती थीं लेकिन किशोरी होने के कारण उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी गई। तब कार्तिक शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को राधा ग्वाला का वेश बनाकर गाय चराने पहुंच गई। यही वजह है कि गोपाष्टमी पर गाय की पूजा करते हैं, उनको तिलक लगाते हैं। इस दिन कृष्ण पूजा त्वरित फलदायी मानी जाती है।