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जयपुर

VIDEO: घरेलू हिंसा का शिकार बचपन और हम

बचपन,अगर घर में महफूज़ नहीं होगा,तो कहां होगा..? मगर आज का दौर ऐसा होने नहीं दे रहा। हम संस्कार और शिक्षा थोपने की आड़ में चाहे-अनचाहे,बच्चों के विरुद

जयपुरJan 30, 2018 / 10:51 pm

पुनीत कुमार

Domestic violence with children
– विशाल ‘सूर्यकांत’

ये बात इसीलिए आज उठी है क्योंकि राजस्थान के राजसमंद जिले में देवगढ़ थाना ‘फूंकिया की थड़’ गांव से एक वीडियो वायरल हुआ है जिसमें दो मासूम बच्चों को,उनका पिता सिर्फ इसीलिए खूंटी से बांधकर पीट रहा है क्योंकि बच्चे मना करने के बावजूद बच्चे मिट्टी खाते थे और जहां-तहां गंदगी कर बैठते थे। बच्चों के चाचा ने वीडियो बनाया और वायरल कर दिया। मामला उठा तो पुलिस कार्रवाई हुई। बच्चों को पीटने वाला पिता गिरफ्तार हुआ,वीडियो बनाने वाला चाचा भी कार्रवाई की जद में आया।
अगर आप बच्चों के साथ हुई मारपीट का पूरा ‘वीडियो’देखें तो सिंहर जाएंगे लेकिन बच्चों की मां,अब भी इसे सहज मामला बता कर पति पर कोई कार्रवाई नहीं चाहती। वो कह रही है – ‘एक-दो थप्पड़ ही तो जड़े थे’। भारतीय परिवारों में ऐसे मामलों में ‘मां’ की क्या स्थिति होगी, ये अलग से समझाने की जरुरत नहीं। पुलिस कार्रवाई भी इसीलिए हुई क्योंकि महिला आयोग के पंचायत स्तरीय सदस्यों ने मामला दर्ज करवा दिया। इस मामले में पुलिस और प्रशासन भी कटघरे में है क्योंकि गांव के लोगों का कहना है कि ये व्यक्ति पहले भी बच्चों के साथ मारपीट करता रहा है, इसकी शिकायत की लेकिन पुलिस,प्रशासन ने कुछ नहीं किया। मार-पीट का वीडियो जब वायरल हुआ तब प्रशासन गंभीर हुआ।
दरअसल, राजसमंद का ये इकलौता मामला नहीं…देश में बच्चे घरेलू हिंसा के शिकार होते रहे हैं। ये दीगर बात है कि इसका कोई ऑफिशियल आंकड़ा तब ही रिकॉर्ड होता है जब शिकायत होती है। ज्यादातर घरों में लोगों को ही अंदाजा नहीं बच्चे जाने-अनजाने किस तरह ‘घरेलू हिंसा’ का शिकार हो रहे हैं। बच्चों के विरुद्ध यौन अपराध के मामलों से कम गंभीर नहीं है ये मामला। बच्चों के प्रति घरेलू प्रताड़ना,राजसमंद की तरह के मामलों से ही नहीं बल्कि बच्चों की उपेक्षा,ज्यादा अपेक्षा,अतिरिक्त दायित्व बोध,धमका कर रखना जैसे मामलों में दिखती है। जो हर कदम जो परिवार में बच्चों को दबाव में रखे उसे घरेलू हिंसा में शामिल होना चाहिए। बच्चों के प्रति उदासीनता और अनदेखी,समय न दे पाना भी मानसिक प्रताड़ना और घरेलू हिंसा है। इस पहलू से देखें तो भारत में औसतन घरों में बचपन उस स्थिति में नहीं है जिस स्थिति में होना चाहिए। अच्छी पेरेन्टिंग के लिए हमारा समाज,हमारे परिवार अभी भी तैयार नहीं और न सरकार देश की नई पीढ़ी के लिए सचेत है।
चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट्स के मुताबिक ऐसे बच्चे जो घर में शारीरिक,मानसिक प्रताड़ना के शिकार होते हैं वो आगे चल कर या तो बहुत निम्म आत्मविश्वास और कमजोर निर्णय क्षमता से साथ बड़े होते हैंं या फिर परिवार के प्रति दुराव इतना हो जाता है कि वो दुराव समाज में नए अपराधी की शक्ल में सामने आ सकता है। जिन घरों में बच्चे प्रताड़ना के शिकार होते हैं,उन बच्चों के डीएनए तक में इसका प्रभाव रहता है। देश में दो परिस्थितियां साफ तौर पर बच्चों को घर में मिल रहे माहौल की और इशारा करती है। बच्चों के प्रति ‘घरेलू हिंसा’ का साइड इफेक्ट क्या हो सकता है, वो सरकारी आंकड़ों के जरिए समझिए…
आंकडे बताते हैं कि देश में हर घंटे एक बच्चा आत्महत्या कर रहा है। एनसीआरबी के आंकडों को देखें तो 2011 से 2015 के बीच पांच सालों में देश भर में करीब 40 हजार बच्चों ने आत्महत्या कर ली। इसके पीछे घरेलू परिस्थितियों को क्या आप नकार सकते हैं ? तस्वीर का दूसरा रुख भी देखिए,देश में बाल अपराध की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। निर्भया मामले में किशोर उम्र के बच्चे की भूमिका हो या फिर दिल्ली के एक निजी स्कूल में साथी की हत्या में उसी स्कूल के छात्र पर लगे आरोप का मामला हो। ये मामले बाल अपराध के मामले इतने गंभीर माने गए कि देश की संसद में भी नए जुवेनाइल कानून पारित किया गया है जिसमें गंभीर अपराधों के मामले में 16 से 18 साल की उम्र के नाबालिग को वयस्क मान कर मुकदमा चलाने की मंजूरी दी है। चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट बच्चों के अतिवादी बर्ताव में घरेलू कारणों को सबसे प्रमुख मानते हैं।
देश के परिवारों में बच्चें आंख के तारे होते हैं। लेकिन ज्यादा लाड़-प्यार में बच्चे बिगड़ते है ये थ्योरी बच्चों के प्रति सख्त रवैया भी लाती है। कहना न मानने पर डांट-फटकार और मारपीट का चलन भी आम है। डिजीटल और सोशल मीडिया के दौर में बच्चे एकाकी जीवन जी रहे हैं। अक्सर मां-बाप के वक्ती गुस्से की चपेट में घर के मासूम बच्चे पीटे जाते रहे हैं। बच्चों के प्रति यही बर्ताव स्कूलों में भी होता आया है। घर,स्कूल,समाज …कहीं बच्चों का बचपन सुरक्षित नहीं लग रहा। सवाल ये है कि क्या मां-बाप होने की जिम्मेदारी का मतलब बच्चों के साथ मारपीट का अधिकार है ? क्या हम अपनी उम्मीदों की गठरी,अपने बच्चों के सिर रखकर चलते हैं ? क्यों हम ये उम्मीद करते हैं कि बच्चा दुनिया में आए और पैदा होते ही हमारी उम्मीदों पूरा करने का जरिया बन जाए ? देश की तरक्की की राह में बच्चों का, मासूम बचपन पीछे छूटता दिख रहा है। देश में अमीर,मध्यम और गरीब तीनों तबकों में बच्चों के प्रति प्रताड़ना के मामले अलग हो सकते हैं लेकिन कम कतई नहीं है।
देश में करीब 10 करोड़ बच्चे स्कूल से महरूम हैं…जबकि देश में शिक्षा का अधिकार लागू है। बच्चों में आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं…कुपोषण से हर साल दस लाख से ज्यादा बच्चों की मौत हो जाती है। देश के कई हिस्सों में बच्चों की कुल आबादी का आधा हिस्सा बाल मजदूर है। देश में 5 से 18 साल की उम्र के तीन करोड तीस लाख से ज्यादा बच्चे बाल-मजदूरी कर रहे हैं। इन आंकड़ों को देखें तो लगता है कि बच्चों का बचपन हम बड़ों ने अपने जीवन से भी ज्यादा ‘दुरुह’ बना लिया है। देश में बचपन के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं। एजुकेशन सिस्टम में प्रोफेशनल अप्रोच के नाम पर बच्चे और शिक्षक के संबंधों के मायने बदल रहे हैं। टास्क बेस्ड टीचर्स के लिए अच्छा होमवर्क करने वाले और न करने वालों की केटेगरी में बच्चे बंटते जा रहे हैं। बस्तों का बोझ ऐसा मानों बच्चे पूरा स्कूल कंधे पर लिए घूम रहे हों। स्कूल से फारिग हुए तो कोचिंग की टेंशन शुरु..। बचपन से उसका ‘मलंग’ अंदाज और ‘बेफिक्री’ छिन लेंगे तो कहां और कैसे बचपन सुरक्षित रह गया बच्चों का ?
भविष्य की फिक्र में हम ये भूल रहे हैं कि बच्चों की जिंदगी में ये दौर दोबारा नहीं आएगा। पेरेन्ट्स ये बात समझें ये बात बेहद जरूरी है। बच्चों को लेकर समाज का नजरिया भी ज़रा अजीब है। हमनें ‘अच्छी परवरिश’ का पैमाना सिर्फ बड़े स्कूल,हाई परसेंटेज और हर हाल में बच्चों को ‘कामयाबी’ दिलाने तक सिमटा रखा है। ये कहा जाता है कि परवरिश,बच्चों का भविष्य तय करती है…तो बच्चों में बढ़ते अपराध या आत्महत्या के बढ़ते मामलों के लिए क्या परिवार,समाज और सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बच जाएंगी ? बच्चे अपनी दुनिया बनाएं ऐसा मौक़ा कहां दे रहे हैं हम..? हम बच्चों के लिए दुनिया बनाते हैं और उसके मुताबिक चलने का दस्तूर बच्चों पर थोपा जा रहा है यानि आपकी खींची लकीर पर चलें आपके बच्चे न चलें तो आप नाखुश हो जाएंगे,गुस्सा हो जाएंगे,हिंसक हो जाएंगे। लेकिन बच्चों की बेचैनी कौन समझेगा ? बच्चों के मन की बात कौन करेगा?
हमारे बच्चे,संस्कार और शिक्षा की अपेक्षाओं के ही नहीं, हमारे समाज के अंधविश्वास के भी शिकार हैं। पिछले सालों में राजस्थान में बच्चों के इलाज में अंधविश्वास का ऐसा साया है कि निमोनिया जैसी बीमारी का इलाज बच्चों को गर्म सलाखों से दाग कर किया जाता है। भीलवाड़ा और राजसमंद में ऐसे कई मामले हैं। मसलन, बनेड़ा में दो साल की मासूम बच्ची पुष्पा को निमोनिया होने पर इतना दागा गया कि दर्द से तड़पते हुए उसकी सांसे टूट गई। तीन महीने की परी को निमोनिया हुआ तो आधा दर्जन जगहों पर गर्म सलाखें चिपका दी गई। अंधविश्वास का दंश झेल रहे हैं हमारे मासूम बच्चे।
कहने तो सरकारी सिस्टम में’बाल-अधिकार संरक्षण आयोग’बनाया गया है। मगर’आती-जाती’सरकारों में ऐसे आयोगों के निर्देशों की कितनी पालना करता है,सिस्टम कितना जबावदेह होता है ? इन आयोगों में राजनीतिक दखल भी कम नहीं। राजनीतिक नियुक्तियों की भरमार वाले आयोग में जब बच्चों के विरुद्ध अपराध को सवाल पूछे जाते हैं तो वे भी किसी सरकारी संस्था की मानिंद बचाव में खड़ा नजर आता है। ये इन संस्थाओं का व्यावहारिक पक्ष है,राजनीतिक स्थितियों के मुताबिक इन संस्थाओं का असर घटता-बढ़ता रहता है।
बच्चों के प्रति घरेलू हिंसा के पीछे चाहे उनसे उम्मीदें हो,अभिभावकों की अज्ञानता हो,सनक हो या कोई अंधविश्वास हो…खामियाजा हमारे बच्चे भुगत रहे हैं। राजसमंद की ये घटना भारतीय परिवारों में बच्चों की स्थिति पर सोचने के लिए मजबूर करती है कि क्या अपने ही घर में असुरक्षित होता जा रहा है बचपन ? कौन है इन परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार ?
सबसे जरुरी बात ये कि हमनें बच्चों की देख-रेख,बच्चों की परवरिश को पूरी तरह पारिवारिक मामला बना रखा है। विकसित देशों में सरकारें मॉनिटरिंग रखती है कि घर में बच्चे के साथ क्या सलूक होता है…हमें ये बात अजीब लगती है कि बच्चों को कैसे रखना है ये कोई सरकार कैसे सीखा सकती है ? नार्वे में भारतीय दंपत्ति से एक बच्चा इसीलिए सरकार ने छिन लिया क्योंकि वहां के नियमों के मुताबिक वो उसे अलग नहीं सुला रहे थे। भारतीय समाज में बच्चों के लालन-पालन का अपना विशिष्ट चलन है। सरकारें ज्यादा दखल नहीं दे सकती लेकिन भारत में भी बच्चे के कानूनी हक़ तो गर्भ में आते ही शुरु हो जाते हैं तो घरेलू हिंसा को दुनिया में आने के बाद का मामला है।
दरअसल, मासूम बच्चे वोटर नहीं इसीलिए 18 साल से पहले उनकी सुध लेना जनप्रतिनिधियों को भी नहीं सुहाता। संसद,विधानसभा में बच्चों के मामले में कुपोषण से मौत के मामले पर हंगामा होता है या फिर बेरोजगारी पर…इसके बीच उम्र का पड़ाव पार कर रहे बच्चे, राजनीतिक दलों को मुद्दा नहीं लगते। बच्चों की घरेलू हिंसा और प्रताड़ना का मुद्दा न सामाजिक मंच पर सामने आता है और न ही धर्म,जाति की जटिलताओं में मुद्दे खोजती राजनीति इस ओर झांकती है। ये बात आखिर में जरुर रेखांकित की जानी चाहिए कि ऐसा नहीं है कि भारतीय परिवारों को बच्चों से प्यार ? नहीं,मुद्दा सिर्फ हम बच्चों के लिए भविष्य की दुनिया आज बनना चाहते हैं जबकि बचपन को चाहिए अपने दौर की अपनी दुनिया,परवरिश के लिए जरुरी नहीं कि बच्चों को अपनी बनाई दुनिया में खींच लाएं, कभी आप भी बच्चों की दुनिया में चले जाया कीजिए…
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