काशी नाथ सिंह का उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ काफी दिलचस्प है। ऐसे में फिल्म की कहानी सियासत के गलियारों से गुजरती है तो यह भी दर्शाती है कि वैश्वीकरण किस तरह भारतीय समाज के मूल्यों का हनन करता है। बनारस की अलहदा संस्कृति के दर्शन के साथ मूवी की शुरुआत अच्छी होती है लेकिन दूसरे हाफ में कहानी बिखर सी गई है। चन्द्रप्रकाश द्विवेदी कहानी में एक साथ कई मुद्दों में उलझ गए हैं। 1988 से शुरू हुई कहानी 1998 तक पहुंचती है, पर बीच में ही तारतम्य बिगड़ गया है। सेंसर की कैंची चलने से बीच-बीच में कई बार संवादों की लय टूटती है। इस वजह से धर्म, संस्कृति, राजनीति और बनारस में रुचि रखने वालों को यह मूवी कुछ अटपटी सी महसूस होने लगती है। अभिनय में सनी देआल ने अपनी इमेज से अलग हटकर किरदार बढिय़ा ढंग से निभाया है, हालांकि संवाद अदायगी में उतने सहज नहीं दिखे। सनी की पत्नी के रोल में साक्षी तंवर ने सहज अभिनय किया है, वहीं रवि किशन अपनी परफॉर्मेंस से प्रभावित करते हैं। सौरभ शुक्ला, सीमा आजमी, मिथिलेश चतुर्वेदी, फैजल रशीद समेत अन्य सपोर्टिंग कास्ट का काम भी अच्छा है। गीत-संगीत बेअसर है। सिनेमैटोग्राफी अच्छी है।
फिल्म के प्रजेंटेशन और ट्रीटमेंट में काफी कसर रह गई। लिहाजा फिल्म के डायलॉग ‘जो मजा बनारस में है, वह ना पेरिस में ना फारस में’ की तर्ज पर कहें तो ‘जो मजा ‘काशी का अस्सी’ में है, वो ‘मोहल्ला अस्सी’ में नहीं है। बहरहाल, अगर आप बनारस, संस्कृति, धर्म, आस्था और सियासी मसलों में दिलचस्पी रखते हैं तो एक बार ‘मोहल्ला अस्सी’ का रुख कर सकते हैं।