कहानी साल 1994 में शाहाबाद से शुरू होती है, जहां बचपन में संदीप सिंह (दिलजीत दोसांझ) बड़े भाई विक्रमजीत (अंगद बेदी) के साथ हॉकी की प्रैक्टिस करता है। लेकिन कोच के सख्त रवैये के कारण संदीप हॉकी छोड़ देता है। नौ साल बाद संदीप ग्राउंड में हॉकी प्लेयर हरप्रीत (तापसी पन्नू) को देखता है और उससे प्यार कर बैठता है। हरप्रीत के लिए वह फिर से हॉकी खेलना शुरू करता है। धीरे—धीरे संदीप की मेहनत रंग लाती है और वह इंडिया टीम से खेलने लगता है। 22 अगस्त 2006 को जब ड्रैग—फ्लिकर संदीप शताब्दी एक्सप्रेस से जर्मनी में होने वाले हॉकी विश्व कप के लिए जा रहे होते हैं तो उन्हें ट्रेन में एक्सीडेंटली गोली लग जाती है और वह बुरी तरह इंजर्ड हो जाते हैं। इस हादसे से उनका बैक से नीचे का हिस्सा लगभग पैरालाइज्ड हो जाता है। हरप्रीत भी उसे छोड कर चली जाती है। ऐसे में संदीप फिर से खडे होना चाहते हैं और देश के लिए हॉकी खेलना चाहते हैं। लेकिन उनका यह संघर्ष आसान नहीं होता…।
संदीप के रोल में दिलजीत ने दिल जीत लेने वाला अभिनय किया है। वह पर्दे पर संदीप की हर मनोदशा को जीते दिखे हैं। तापसी पन्नू एक बार फिर अच्छी एक्टिंग करने में सफल रही हैं। दिलजीत व उनकी कैमिस्ट्री जमी है। विक्रमजीत के रोल में अंगद परफेक्ट चॉइस हैं। कोच हैरी के किरदार में विजय राज के डायलॉग्स विटी और शार्प हैं। सपोर्टिंग रोल में सतीश कौशिक व कुलभूषण खरबंदा ठीक हैं।
फिल्म का प्लॉट इंटरेस्टिंग है। स्क्रीनप्ले ठीक है, लेकिन एक्साइटिंग नहीं। इस वजह से रोमांच की कमी अखरती है। शाद का निर्देशन अस्थिर है। वह संदीप सिंह की इस अविश्वसनीय कहानी को सिनेमाई कैनवास पर रोचकता के साथ प्रजेंट करने में थोड़े डगमगा गए हैं, वहीं दिलजीत-तापसी के रोमांटिक ट्रैक को भी सही से भुना नहीं पाए। गीत-संगीत भी कुछ खास नहीं है। फिल्म की रफ्तार भी थोड़ी धीमी है। संपादन भी दुुरुस्त किया जा सकता था। सिनेमैटोग्राफी ओके है।
‘सूरमा’ के प्रॉमिसिंग प्लॉट का एग्जीक्यूशन परफेक्ट तरीके से नहीं हुआ है। हालांकि दिलजीत, तापसी समेत तकरीबन सभी कलाकारों का अभिनय अच्छा है। बहरहाल, संदीप सिंह की यह प्रेरणादायक कहानी कभी हार नहीं मानने का संदेश देती है। संदीप के संघर्ष की कहानी और दिलजीत के अभिनय के लिए ‘सूरमा’ को देखा जा सकता है।