दिवाली की सकून भरी रात में चन्द्र महल और बाद में देर रात तक रामबाग में शोरगर अनूठी आतिशबाजी का फन बिखेर कर शहर को धमाकों व इंद्रधनुषी रगों से मंत्र मुग्ध कर देतेे थे। दिवाली की शाम को शोरगर आइटमों का पिटारा ऐन वक्त पर खोल वाह वाही लूटते और इनाम प्राप्त करते थे। वहीं, सवाई राम सिंह के जमाने में शोरगरों के एक दर्जन परिवार साल भर नए नए आइटमों की खोज करते तथा कला दिखाने के लिए महाराजा की साल गिरह और दिवाली की रात का इंतजार करते थे। चन्द्र महल की छत पर गोविंददेवजी की तरफ झांकते रंग महल की चांदनी में सजी शाही महफिल में महाराजा के साथ खास मेहमान, सामंत और जनाना सरदारों के साथ आतिश के सतरंगी नजारे को देखते थे। फिर जयपुर रियासत के अंतिम शासक सवाई मानसिंह के बाद उनके पुत्र ब्रिगेडियर भवानी सिंह ने आतिशबाजी की परम्परा को बढ़ाया। आतिशबाजी से खुश हो सवाई मानसिंह ने एक शोरगर को इंग्लैण्ड में बनी साइकिल पुरस्कार में दी थी। आजादी के बाद राजस्थान पत्रिका के संस्थापक कर्पूरचन्द्र कुलिश ने जयपुर के शोरगरों की आतिशबाजी को विश्व में विख्यात करवाया। उन्होंने जयपुर के ढाई सौ वें स्थापना दिवस और बाद में सवाई मानसिंह स्टेडियम में आतिशबाजी करवाई जिसके लाखों लोग गवाह बने थे।