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पुत्रमोह में धृतराष्ट्र बन रहीं मुख्यमंत्री…ये भी इमरजेंसी है…गुलाब कोठारी की कलम से

locationलखनऊPublished: Aug 04, 2016 12:59:00 pm

लोकसभा में मध्यप्रदेश से कांग्रेस सांसद कांतिलाल भूरिया ने केन्द्र सरकार सहित कई राज्य सरकारों द्वारा राजस्थान पत्रिका समूह के सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगाने का मामला उठाने की आज्ञा मांगी।

Rajasthan Patrika Ads Ban Controversy in Loksabha

Rajasthan Patrika Ads Ban Controversy in Loksabha

मंगलवार को लोकसभा में मध्यप्रदेश से कांग्रेस सांसद कांतिलाल भूरिया ने केन्द्र सरकार सहित कई राज्य सरकारों द्वारा राजस्थान पत्रिका समूह के सरकारी विज्ञापनों पर रोक लगाने का मामला उठाने की आज्ञा मांगी। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने स्वीकृति नहीं दी। आसन की स्वीकृति नहीं मिलने पर कागज सदन के पटल पर रख दिया गया। भूरिया का कहना था कि मीडिया पर अंकुश लगाना लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। मामला टेबल पर रखे जाने के बाद सरकार को बताना चाहिए कि राजस्थान पत्रिका समूह ने ऐसा क्या किया कि यह नौबत आई। सरकारों ने कब-कब पत्रिका को चेतावनी पत्र लिखे, क्या-क्या कारण दिए तथा कब (सूचना प्रसारण विभाग) विज्ञापन बंद करने के नोटिस जारी किए। पत्रिका द्वारा जारी पत्रावली भी सदन के बीच आनी चाहिए। इन सबके बिना तो दोनों-तीनों सरकारों को मानना पड़ेगा कि लोकतंत्र में उनका विश्वास ही नहीं है।
पिछले आम चुनावों में सबको विश्वास हो गया था कि ‘अच्छे दिन’ आने वाले हैं। सरकारें बन जाने के बाद सुषमा स्वराज, शिवराज सिंह और वसुंधरा राजे के विरुद्ध चले घटनाक्रम से वातावरण ऐसा गहराया कि मानो वे तुरंत जाने वाले हैं। राजनीति में सबके पांव कमजोर होते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इनसे कुछ न कुछ समझौते तो कर लिए, किंतु लगता है इनके सिर पर तलवार भी लटका दी। आज हमारी मुख्यमंत्री को यह तो स्पष्ट है कि भाजपा उनको फिर से मुख्यमंत्री नहीं बनाएगी। अत: वे खुद तो सात पीढिय़ों की चिंता में व्यस्त हैं। हर भ्रष्ट अधिकारी को बचाती जा रही हैं। पिछले ढाई वर्षों में राज्य में बड़े-बड़े राष्ट्रीय स्तर और व्यक्तिगत स्तर के दलाल पैदा हो गए। उनमें से कई जेल तक पहुंच गए। सरकार उनके साथ व्यस्त होकर जनता को भूल गई।

विज्ञापन रोकना लोकतंत्र के लिए दुखद: अशोक गहलोत

उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय के आदेश मानो मनोरंजन का विषय बनकर रह गए। राज्य की ही भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियां रोज जिस तरह की धरपकड़ कर रही हैं, उससे लगता है कि जैसे यहां लूट-खसोट और बंदरबाट के अलावा कुछ हो ही नहीं रहा। पत्रिका जब ऐसे समाचार प्रकाशित करता है तो सरकार के अहंकार को ठेस लगती है। समाचार मनगढ़ंत नहीं होता, ब्लैकमेल कभी किया ही नहीं जाता। बस, सरकार के विरुद्ध क्यों छपा? मानो राजाओं का राज लौट आया हो। मीडिया की स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति का अधिकार राजस्थान पत्रिका के लिए आज उपलब्ध नहीं है। हां, सरकार अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने के लिए स्वतंत्र है। एक मात्र राह का रोड़ा है राजस्थान पत्रिका जो सारे कारनामों को जनता तक पहुंचा देता है। उसका मुंह बंद करना तो अनिवार्य हो गया था। 
सत्ता में इसका एक ही उपाय होता है- विज्ञापन बंद कर दो। मानो अगले का भाग्य बदल जाएगा। अब तो यह चर्चा भी चल पड़ी है कि आजादी के बाद इतनी भ्रष्ट सरकार प्रदेश में नहीं आई। आज पूरा राजस्थान त्राहि-त्राहि कर रहा है। चाहे बोले कोई नहीं पर भाजपा के मंत्री, सांसद, विधायक सब दु:खी हैं। क्योंकि पिछले ढाई साल में कोई भी योजना नीचे तक नहीं पहुंची है। सब अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर आशंकित हैं। स्वयं मुख्यमंत्री का विधानसभा क्षेत्र रो रहा है किन्तु इनकी गतिविधियों पर किसी भी प्रकार का प्रभाव नहीं पड़ा। न दिल्ली कुछ रोक रहा है। न पत्रिका को ही खरीद पाए। न पत्रिका ने कुछ मांगा ही। यह तो पद का अहंकार ही है। जिनसे हर संकट में मदद मांगी जाती थी, स्वार्थवश उन पर ही गोलियां चलाई जा रही हैं।
पत्रिका अपना कार्य अपने सिद्धान्तों से करता आ रहा है। आगे भी जनहित में करता रहेगा। कहीं कोई दाग धब्बा नहीं। यह बात सरकार के अहंकार को मंजूर नहीं। उन्हें तो हर मीडिया अपने अंगूठे के नीचे चाहिए। दिल्ली में भी भाजपा की ही सरकार है। इनकी बिरादरी के लोग ही बैठे हैं। एक फोन से डीएवीपी के केन्द्रीय सरकार के विज्ञापनों पर भी रोक लगा दी। पाठकों को याद होगा कि इमरजेंसी में भी पत्रिका को कांग्रेस विरोधी मानकर तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल फोन पर धमकियां देते रहते थे। कलेक्टर कार्यालय ने सेन्सरशिप बनाए रखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी, किन्तु तब भी हमारे सरकारी विज्ञापन बंद नहीं हुए थे। 
आश्चर्य है कि बिना किसी सूचना के आज ‘अच्छे दिनों’ में भी बंद हैं। क्या यह इमर्जेंसी से भी बड़ा तानाशाही का संकेत नहीं हैं? हमारी मुख्यमंत्री तो बराबर कहती हैं कि वे तो अपनी दिवंगत माता विजयराजे सिंधिया के पदचिन्हों पर चलती हैं। वे भी स्वर्ग से देख रहीं होंगी कि किस-किस के दबाव में सीएम क्या-क्या गलत निर्णय कर रही हैं। आज भाजपा में मुख्य चर्चा यह है कि, मुख्यमंत्री का पुत्र मोह भयंकर रूप से जाग्रत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दुष्यंत सिंह को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में लेने से मना कर दिया था। अब मुख्यमंत्री उसे राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने के सपने देख रही हैं। पहले यह तो उनको समझ लेना चाहिए कि वह अपने क्षेत्र में जीत भी पाएंगे या नहीं। आज तो भाजपा के साथ सहयोगी वातावरण भी नहीं है। सरकार ऐसे ही चली तो भाजपा निपट भी सकती है। जनता केवल उनके पुत्र पर मेहरबान होगी यह विचारणीय प्रश्र है। 
विभिन्न भाजपा सरकारों ने हमारे समाचारों से नाराज होकर क्रमबद्ध तरीके से, मानो योजनाबद्ध ढंग से, विज्ञापन बंद किए। सबसे पहले छत्तीसगढ़ सरकार ने पत्रिका पर हमला बोला। इस बीच मध्य प्रदेश में हमारे ‘अच्छे दिन’ आए। बाद में विज्ञापन तो चालू हो गए फाइलें नहीं चली आगे। राजस्थान तो एकदम आक्रामक ही दिखाई दिया। करीब आठ माह हो गए, उसे राजस्थान पत्रिका के विज्ञापन बंद किए हुए। मुंबई की एक विज्ञापन एजेंसी ने तो बताया कि स्वयं मुख्यमंत्री कार्यालय ने हमको विज्ञापन जारी करने से मना किया है। दिल्ली में इन्हीं के सांसद राज्यवद्र्धन सिंह, सूचना एवं प्रसारण विभाग में राज्य मंत्री हैं। क्या नहीं कराया जा सकता? अब यह तो उम्मीद नहीं कि इस सरकार के रहते अच्छे दिन आएंगे। हम तो हमेशा की तरह अपने पाठकों के बूते अपना कुछ सामान बेचकर भी अगले ढाई साल गुजार लेंगे, किंतु क्या इसी वातावरण के रहते भाजपा सत्ता तक पहुंच पाएगी अगले चुनावों में? और तब क्या दुष्यंत ही नए मुख्यमंत्री होंगे? पुत्र मोह में धृतराष्ट्र बनने से अच्छा है मुख्यमंत्री समय रहते अहंकार छोड़कर जनता की सुध लेना शुरू करें। शायद ईश्वर आपकी सुन ले!

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