तूंगा के घमासान में पहले ही दिन दोनों तरफ के दो हजार से ज्यादा यो़द्धा मारे गए। 28 जुलाई, 1787 को तूंगा में लड़ाई में बिजली की तरह चली तलवारों और तोपों से आग उगलते छूटे 14 सेर के गोलों से अनेक हाथी, घोड़े व महावत भी नहीं बचे।
मृत सैनिकों का अंतिम संस्कार करने के लिए मराठा और कछवाहों को दो दिन तक युद्ध को बंद रखना पड़ा। मरे सैनिकों की हड्डियां आज भी माधोगढ़ और तूंगा के खेतों में निकल आती हैं। केसरिया साफा धारण कर तलवारों को खनखनाते कछवाहे व राठौड़ मराठों को सबक सिखाने मैदान में उतरे।
दोनों तरफ की तोपों की आवाज से इलाके में कम्पन्न होने लगा। दिल्ली के बादशाह शाह आलम ने मराठा महादजी सिंधिया को सर्वेसर्वा बना दिया था। मुगलों की ताकत मिलने के बाद सिंधिया ने राजपूताना की रियासतों में तोप व तलवार के बल पर चौथ वसूली और लूटपाट करनी शुरु कर दी थी।
महादजी ने जयपुर महाराजा प्रताप सिंह से 240 करोड़ रुपए मांगे थे। महाराजा के प्रधानमंत्री दौलतराम हल्दिया ने मराठों से बातचीत कर 60 लाख रुपए देने का करार किया। मराठों को समय पर रकम नहीं मिली तब सिंधिया ने फ्रांसिसी डिबॉयन को कमांडर बनाकर जयपुर पर चढ़ाई कर दी।
इस संकट की घड़ी में मारवाड़ महाराजा विजय सिंह ने मराठों को सबक सिखाने के लिए भीम सिंह की अगुवाई में दस हजार राठौड़ घुड़सवारों को जयपुर भेजा। चौमूं का रणजीत सिंह और मारवाड़ का सेनापति शिव राम भंडारी, रियां का जागीरदार सुजान सिंह व जवानदास जैसे वीर योद्धा मराठों से भिडऩे जयपुर में आ डटे।
युद्ध की पहली रात को महादजी सिंधिया ने रात भर पूजा की और सुबह मैदान में आ डटा। जयपुर की तोपों ने 5 से 14 सेर के गोले बरसा कर तूंगा के मैदान को कम्पायमान कर दिया।
हाथी पर आए हमदानी ने गोला लगने से दम तोड़ दिया। इतिहासकार यदुनाथ सरकार ने लिखा कि युद्ध में जोधपुर का सेनापति शिवराम भंडारी, सामंत भीम सिंह का साला भी मराठों की तलवारों से मारे गए।