जयपुर

बच्चे कैसे पीएंगे दूध

महंगा हो गया दूध, मगर हर कोई मौन

जयपुरDec 07, 2019 / 09:46 pm

Jagdish Vijayvergiya

बच्चे कैसे पीएंगे दूध

जगदीश विजयवर्गीय
दूध के दाम फिर बढ़ा दिए गए हैं। सालभर में दो-दो रुपए कर तीन बार में कुल छह रुपए बढ़ाए जा चुके हैं। अब सरकारी दूध सबसे ‘हल्काÓ 38 रुपए और सबसे ‘बढिय़ाÓ 56 रुपए लीटर (किलो नहीं) है। इसके बावजूद कहीं कोई प्रतिरोध नहीं है। जनता को तो कोई पूछता और उसकी सुनता नहीं है। अफसर और जन प्रतिनिधि अपने-अपने हित साधने में लगे हैं। ऐसे में दूध के दाम पर चर्चा करे कौन? दाम पेट्रोल-डीजल के बढ़ते तो कई संस्था-संगठन हल्ला मचाने लगते। बड़े-बड़े लोग बयान देने लगते। सियासत का बड़ा मुद्दा बन पड़ता लेकिन दूध की सुध कौन ले? जबकि दूध तो हर व्यक्ति, हर घर, हर परिवार, हर मेहमान, हर शादी-समारोह की जरूरत है। मिठाई की दुकान छोटी हो या भव्य, दूध के बिना क्या उसके अस्तित्व की कल्पना की जा सकती है? दूध नहीं फटेगा तो दही नहीं जमेगा और दही के बिना छाछ भी कहां से आएगी? लेकिन यह सरल सा गणित भी लगाए कौन? खोखले नारों, कागजी योजनाओं और थोथी घोषणाओं से जिम्मेदारों को फुर्सत भी तो मिले! उन्हें क्या फिक्र, उनके लिए तो ये केवल आंकड़ेभर हैं कि जयपुर में रोजाना 10 लाख और प्रदेश राजस्थान में रोजाना 30 लाख लीटर से अधिक दूध सप्लाइ होता है। यानी पानी के बाद जनता की जरूरत की बड़ी चीजों में दूध शामिल है। उन्हें तो यह भी भान नहीं होगा कि न्यूनतम मजदूरी नरेगा में 199 और सामान्य 225 रुपए है। इतनी सी कमाई में गरीब-मध्यम वर्ग का व्यक्ति अपने बच्चों को दूध कैसे खरीदकर पिलाएगा? नहीं पिलाएगा तो बच्चों का पोषण कैसे होगा? पिलाएगा तो पहाड़ जैसे शेष खर्च कैसे चलाएगा? घर आए मेहमान को क्या उस चाय के लिए भी नहीं पूछेगा, जिसकी लत हमें अंग्रेज लगा गए?
दरअसल, दूध के दाम नियन्त्रित रखने के लिए सरकार ने अब तक कभी कोशिश ही नहीं की जबकि जनता से जुड़े इस मसले पर उसे पूरा दखल रखना चाहिए। जिला संघों से लेकर उच्च स्तर तक जन प्रतिनिधियों को निगरानी के लिए जिम्मेदार पदों पर बैठाया जाता है लेकिन जनहित को हाशिए पर छोड़कर वे अपने हित साधने में जुटे नजर आते हैं। यही कारण है कि जब-तब मर्जी पड़े, दूध के दाम बढ़ा दिए जाते हैं। इसके लिए जब-तब तर्क दिया जाता है कि दुग्ध उत्पादकों से खरीद का मूल्य बढ़ गया, इसलिए दाम बढ़ाने पड़ रहे हैं। जबकि डेयरियों का उद्देश्य है कि वे लाभ-हानि की फिक्र छोड़कर जनता के लिए काम करें। बड़ा सवाल यह भी है कि सरकार को ही बार-बार दाम क्यों बढ़ाने पड़ते हैं? निजी क्षेत्र का दूध सरकार के मुकाबले सस्ता कैसे? क्या सरकार को इस पहलू पर जांच नहीं करनी चाहिए? दूध जैसी चीज से जनता को दूर कर क्या सरकार अपने ही दावों के विपरीत नहीं चल रही है? कुपोषण मिटाने का हवाला देकर स्कूलों में बच्चों को दूध पिलाती है और दूसरी तरफ दाम बढ़ाकर काम ऐसा करती है कि बच्चों को घर पर दूध मिले ही नहीं! यह कैसा दोहरा रवैया है? पोषण बच्चों का करना है या खुद दूध का?

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