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शर्मनाक! राजस्थान में पेट पालने के लिए बच्चों को रखा जाता है गिरवी, जानें क्या है मजबूरी

locationजयपुरPublished: Jul 01, 2019 02:34:42 pm

Submitted by:

neha soni

पेट पालने के लिए मां-बाप 30 हजार में गिरवी रख देते हैं अपने बच्चे

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शर्मनाक! राजस्थान में पेट पालने के लिए बच्चों को रखा जाता है गिरवी, जानें क्या है मजबूरी

जयपुर / बारां

अपने बच्चों का पेट पालने के लिए मां बाप क्या कुछ नहीं करते ताकि उनका बच्चा पढ़ लिख सके अच्छा इंसान बन सके। पर क्या कभी आपने ऐसा सुना है की मां बाप अपना पेट पलने के लिए अपने ही बच्चों को गिरवी रख देते है। ये बात जितनी चौंकाने वाली है उतनी ही शर्मनाक भी।
सरकार के नि:शुल्क राशन, शिक्षा और चिकित्सा के दावों से इतर आदिवासी इलाकों में जीवन कितना मुश्किल है, इसका अनुमान केवल इसी बात से लगाया जा सकता है कि जीवन यापन के लिए आदिवासी समुदाय में बच्चों को गिरवी रख दिया जाता है। बारां, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, कुशलगढ़ व मध्यप्रदेश के धार, झाबुआ, अली राजपुर इलाके में आदिवासी समाज में यह अजब रवायत आज भी है। सालभर की मजदूरी के नाम पर 30 से 40 हजार रुपए में रैबारी इन बच्चों को भेड़ और ऊंट चराने का काम देते हैं।
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अनजान बने हुए चाइल्ड लाइन और मानव तस्करी यूनिट


बारां के शाहाबाद उपखंड मुख्यालय के भील समाज के गांव आनासागर, रानीपुरा, हाड़ोता, उचावत, मंगलपुरा,खूंटी, बलारपुर, आदि गांवों के 50 से ज्यादा बच्चे रेबारियों के पास गिरवी हैं। जगह-जगह भेड़ निष्क्रमण के दौरान रेवड़ के साथ यह बच्चे सहज दिख जाते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि चाइल्ड लाइन और मानव तस्करी यूनिट इस गोरखधंधे को जान कर भी अनजान बनी हुई हैं।
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पत्नी के क्रियाकर्म के लिए रख दिया बेटे को गिरवी


शाहाबाद उपखंड के एक गांव के शामू और रमेश के पिता की तीन चार वर्ष पहले बीमारी से मौत हो गई। पिता की मौत के बाद मां नाते चली गई। चाचा की हैसियत इन्हें पालने की थी नहीं, सो उसने दोनों भाइयों को रेबारियों को 30 हजार रुपए साल में गिरवी रख दिया। दोनों दो वर्ष से रेबारियों के साथ भेड़ें चराते हैं।
शाहाबाद इलाके के एक गांव में दो वर्ष पहले दीन्या की पत्नी की मौत हुई। क्रियाकर्म और अन्य कामों पर 30 हजार रुपए खर्च हो गए। इतने रुपयों की व्यवस्था कैसे होती सो दीन्या ने अपने 14 वर्ष के बेटे को भेड़ें चराने के लिए गिरवी रख दिया। उसका बेटा अभी भी रेबारियों के साथ है।
गिरवी रखे जाने वाले बच्चों की उम्र 10 से 14 साल होती है। रेबारी लोग कम उम्र के बच्चों को ज्यादा पसंद करते हैं, क्योंकि कम उम्र के बच्चे खाना भी कम खाते हैं और काम ज्यादा कर पाते हैं। बच्चे कम खाना खाते हैं तो रात के समय में जंगली जानवरों से भेड़, ऊंटों की चौकसी सही होती है। रात भर बच्चे भूख से बिलखते रहते हैं। सुबह होते ही वापस काम पर भेज दिए जाते हैं। ऐसे कई बच्चे हैं, जिनका पूरा बचपन रेबारियों की भेड़ चराने में बीत जाता है।
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वर्ष में एक बार घर आते है बच्चे


बच्चों को गिरवी रखने का खेल दलालों के माध्यम से होता है। दलाल दोनों पक्षों को मिलवाता है और दोनों पक्षों से दलाली वसूल करता है। कुछ मामलों में दस रुपए के स्टाम्प पर लिखा पढ़ी होती है। ज्यादातर मामलों में जुबान पर यह पूरा मामला चलता है। जब बच्चे को गिरवी रखा जाता है उस समय कुछ रुपया चुका दिया जाता है। बाकी रुपया रेबारी तीन-चार किस्तों में देते हैं।
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पेट पालने के लिए रेबारियों को सौंप देते है बच्चे
नाम नहीं छापने की शर्त एक अभिभावक ने बताया कि सरकार की योजनाओं का आदिवासी इलाकों में ज्यादा लाभ नहीं मिला है। हमारे पास खेती के योग्य ज्यादा जमीन नहीं है। वनों की उपज से जो कुछ आय होती है, उसी से पेट पलता है। बच्चों का पेट पालने के लिए ही उन्हें रेबारियों को सौंप देते हैं। इस बात का दुख हमें भी होता है कि स्कूल जाने व खेलने-कूदने की उम्र में उन्हें काम करना पड़ता है।
शाहाबाद के उपखंड अधिकारी कैलाश गुर्जर का कहना है कि अगर कहीं रेबारियों द्वारा बच्चों को भेड़ों, ऊंटों को चराने का मामला सामने आता है तो इसकी मौके पर जाकर जांच करवाई जाएगी। साथ ही ऐसे लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी की जाएगी जो बच्चों से भेड़े चराने का काम करवा रहे हैं।
-कैलाश गुर्जर ,उपखंड अधिकारी, शाहाबाद
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