प्रस्तुत है हिम्मत शाह से कुमार मुकुल की बातचीत के अंश-
आपका कला की ओर रुझान कैसे हुआ? ऐसा कोई विचार कर चित्रकारी की ओर नहीं गया मैं। मन खाली सा लगता तो चित्र बनाने लगा। पढऩे के लिए पैसा नहीं था, तो पड़ोसी मकान में चूना करता तो मैं उसकी तगाड़ी उठा उसकी मदद करता, उसे दीवार रंगता देखता।
फिर एक दोस्त के साथ दिल्ली आ गया। इस बीच जहां-तहां रेखाएं खींचने की आदत लग चुकी थी। दिल्ली में मित्र जे स्वामीनाथन एक बार मुझो लेकर मैक्सिकन कवि ऑक्टोवियो पॉज के पास गए। पॉज नोबल से सम्मानित हो चुके हैं। उन्होंने मेरे बनाए चित्र देखे तो उनकी सराहना की। तब मुझो अंग्रेजी आती नहीं थी तो उनकी राय से अंग्रेजी की क्लास लेकर कामचलाने भर अंग्रेजी सीखी मैंने। पॉज ने ही पेरिस घूमने के लिए फेलोशिप की व्यवस्था कराई। 1966 में मैं पेरिस-लंदन घूमा। पिकासो, मार्टिस, बराक का काम देखा। वहां के म्यूजियम देखे, आर्ट क्लासेज भी किए। वहां महीनों रहा मैं।
क्या मौलिकता जैसी कोई चीज होती है, या हम किसी परंपरा में विकसित होते रहते हैं?
एकदम, मौलिकता होती है। जन्म पहली मौलिक रचनात्मकता है। रचनात्मकता का संबंध दिमाग से नहीं दिल से है। अब एक फूल है तो मैं कितनी भी कोशिश करूं उसकी नकल नहीं कर सकता। इसलिए मैं प्रकृति जैसी शक्लों को आकार देने की कोशिश करता हूं। बाढ में जब कोई घर गिरता है तो वह मुझो जीवित और रचनात्मक लगता है, मैं उसे फिर अपनी रचना में लाना चाहता हूं।
आपने इंस्टालेशन, चित्रकारी आदि कला के विभिन्न क्षेत्रों में हाथ आजमाया है,आपको प्रिय क्या है?
टेराकोटा के काम में, मिट्टी के काम में मुझो मजा आता है। फिर ब्रांज पर काम करना भी पसंद है। यूं जो भी काम मुझो अच्छा लगता है मैं करता जाता हूं। यह नहीं सोचता कि लोग क्या कहेंगे, बस करते जाता हूं।
कवि आक्टोवियो पॉज के बारे में बताएं। उनकी संगत कैसी रही?
पॉज बड़ा पोएट हैं। आदमी सिंपल और अच्छे थे। मुझो अपनी बात रखनी नहीं आती थी फिर भी वे मुझो सुनते थे। हंसते भी थे। वे बोलते थे -आई लव इंडिया, कि संभावना है तो इस मुल्क में है। पर आज जो कुछ हो रहा, मुझो तो कोई संभावना नहीं दिख रही अब।
अन्य कलाओं, भारतीय संगीत आदि के बारे में आपका नजरिया?
जो भारतीय संगीत को नहीं जानता, वह भारत को नहीं जानता। अमीर खान, किशोरी अमोनकर, अली अकबर, फैयाज खां, ग्वालियर घराना, पटियाला घराना के संगीतकारों को सुनता रहता हूं। कुमार गंधर्व, भीमसेन जोशी, अजीत चक्रवर्ती, कौशिकी चक्रवर्ती, जोहरा बाई सबको सुनता हूं।
आज की कला और जीवन के दर्शन के बारे में क्या सोचते हैं ?
आज अधिकतर कलाकार करियरिस्ट हैं। पर मैं सहजता को मानता हूं। साधो सहज समाधि भली, कितनी बड़ी बात है। सरहपा ने भी सहजयोग की बात की। स्मृति मुख्य है। कला आकलन में, आब्जर्वेशन में है। पश्चिम के लोग कला के कद्रदां हैं, भारत में नहीं हैं वैसे लोग। हमें प्रकृति के रंग पकडऩे की कोशिश करनी चाहिए।