scriptतखलीक के लिए जरूरी है असरार कायम रहना : शीन काफ़ निज़ाम | It is necessary for Takhaliq to keep secret : Sheen Kaf Nizam | Patrika News

तखलीक के लिए जरूरी है असरार कायम रहना : शीन काफ़ निज़ाम

locationजयपुरPublished: Sep 22, 2019 10:12:09 pm

Submitted by:

rajendra sharma

जवाहर कला केंद्र ( JKK jaipur ) के रंगायन सभागार ( JKK Rangayan ) में दो रोज़ा ‘इक्कीसवीं सदी में ग़ालिब’ सेमिनार रविवार को संपन्न हुई। आखिर में मशहूर शायर शीन काफ़ निज़ाम ( Sheen Kaaf Nizam ) ने इन दो दिन में ग़ालिब पर हुई गुफ्तगू पर बात की। उन्होंने कहा कि ग़ालिब ( Mirza Ghalib ) पर गुफ्तगू के लिए दो दिन कम लगे। उन्होंने कहा, इन दो दिनों में सिर्फ ग़ालिब ही नज़र आ रहे थे, जैसे बर्बरीक को महाभारत के युद्ध में सिर्फ सुदर्शन चक्र दिख रहा था।

तखलीक के लिए जरूरी है असरार कायम रहना : शीन काफ़ निज़ाम

तखलीक के लिए जरूरी है असरार कायम रहना : शीन काफ़ निज़ाम

‘जो तखलीक (रचना) जितनी देर तक अपना असरार (रहस्य) कायम रख सकती है, वह उतनी ही देर तक ज़िंदा रह सकती है। जिस तखलीक का असरार ताबीर की गिरफ्त में आ जाता है, वह तारीख़ का हिस्सा बन कर रह जाती है।’
यह बात मशहूर शायर शीन काफ़ निज़ाम ( Sheen Kaaf Nizam ) ने रविवार को जेकेके ( JKK jaipur ) के रंगायन सभागार ( JKK Rangayan ) में सेमिनार के तीसरे इजलास के बाद पूरी सेमिनार पर अपनी बात रखते हुए कही।
अज़ीम शायर निज़ाम ने महाभारत ( Mahabharat ) के बर्बरीक ( Barbarik ) प्रसंग का उदाहरण देते हुए कहा कि जिस तरह बर्बरीक ने पूरी जंग में सिर्फ सुदर्शन चक्र को ही चलते देखा था, उसी तरह इन दो दिनों में सिर्फ ग़ालिब ही नज़र आ रहे थे। वो इतने बड़े शायर थे कि उन पर गुफ्तगू करने बैठें तो दो दिन में कुछ हो ही नहीं सकता, और फिर ‘इक्कीसवीं सदी में ग़ालिब’ पर तो बात मुकम्मल करना और भी मुश्किल है।

ग़ालिब का ‘काबा-ए-हिदोस्तां’

प्रसिद्ध शायर निज़ाम ने ग़ालिब के धर्म निरपेक्ष पहलू को उकेरते हुए कहा कि बनारस में ग़ालिब ने फारसी मसनवी चरागे-ए-दैर लिखा। इसमें 108 शेर थे, बताते हैं ज्यादा थे, लेकिन ग़ालिब ने इतने ही रखे। निज़ाम ने कहा, ‘तमाम हिंदू इसका महत्त्व जानते हैं। माला में 108 मनके ही होते हैं।’
निज़ाम बताते हैं, ग़ालिब ने काशी (बनारस) को हिन्दुओं की इबादतगाह और हिन्दुस्तान का काबा करार दिया। उन्होंने ग़ालिब का बनारस ( Banaras ) पर कहा शेर…
‘इबादतखाना ए नाकूसियांस्त। हमाना काबा ए हिंदोस्तानांस्त।’ पेश किया। जिसका मतलब है कि यह शंख पूजने वालों का स्थल और हिदोस्तां का काबा है।

शेर पढ़ते ही दाद कैसी

देश-दुनिया के मशहूर शायर निज़ाम ने हसरत मोहानी शेर… शेर दर-अस्ल हैं वही ‘हसरत’ सुनते ही दिल में जो उतर जाए…सुनाते हुए कहा कि एक मिसरा बनाने में महीनों लग जाते हैं, तो लोग एक पल में उसकी गहराई को कैसे समझ सकते हैं। इधर, शेर पढ़ा और उधर तपाक से ‘वाह’ कहें, यह कैसे हो सकता है।

सवाल हमेशा बना रहता है

उन्होंने कहा कि इस सेमिनार के दौरान यह बात बार—बार उठी कि ग़ालिब शायरी में सवाल उठाते थे। दरअसल, सवाल हमेशा कायम और वही रहता है, जवाब बदलते रहते हैं। सवाल ज़माने के साथ नहीं बदलता, जवाब बदलते हैं। उन्होंने कहा कि शेर की समझ जरूरी है, तभी उसे सही पढ़ और सुन सकते हैं। उन्होंने बताया कि अज्ञेय ने कहा था कि आज के कवि को दूसरे कवि की तो क्या, अपनी कविता को भी ठीक से पढ़ना नहीं आता। हर बड़ा शायर सवाल उठाता है। जिसके पास सवाल नहीं वह बड़ा शायर नहीं। वह जवाब नहीं लेता, आपकी सवाल को समझने की तौफीक जगाता है। हर सदी सवाल लेकर आती है, कुछ सवाल इटरनल होते हैं।

फिल्मी और इल्मी शायरी

आज तो वही शायर बड़ा माना जाता है जो फिल्मों में हो, जो गाया जाता है। एक फिल्मी शायरी होती है, एक इल्मी शायरी होती है। अस्ल अस्ल है, नकल नकल है। उन्होंने तीन सौ साल पहले कही गई एक विद्वान की बात, ‘फन हमारे जमाने में गलत रास्ते पर चला गया है’ बताते हुए कहा कि जब तक फन सही रास्ते पर नहीं आएगा, तब तक कुछ नहीं हो सकता।

ग़ालिब के कलाम का तर्ज़ुमा

शायर शीन काफ़ का निजाम ने बताया कि ग़ालिब के कलाम का संस्कृत में तर्ज़ुमा इलाहाबाद के जगन्नाथ पाठक ने किया था, जिसे साहित्य अकादमी ने अवॉर्ड दिया था। पाठक का इंतकाल तीन साल पहले हो गया था। राजस्थान में झुंझुनूं के यूसुफ झुंझुनूंवी ने राजस्थानी में किया था। उन्होंने बताया कि संस्कृत का तर्ज़ुमे की खासियत है कि करीब-करीब उसी बहर का इस्तेमाल किया है, जिसका ग़ालिब ने किया था।

उन्होंने इस कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए राजस्थान उर्दू अकादमी के सचिव मोअज्जम अली और जवाहर कला केंद्र के अतिरिक्त महानिदेशक फुरकान खान को मुबारकबाद दी। साथ ही, सेमिनार में पढ़े गए सभी मक़ालों की तारीफ की।

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