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मैं उस समय आठवीं क्लास में थी और बड़ी लम्बी थी वो ‘काली’ रात…

locationजयपुरPublished: Aug 06, 2019 04:36:17 pm

Submitted by:

Ankita Sharma

फटे टेंटों में बिताए दिन

indu kaul

मैं उस समय आठवीं क्लास में थी और बड़ी लम्बी थी वो ‘काली’ रात…

मैं इंदू कौल, उस समय आठवीं क्लास में पढ़ती थी। धरती के स्वर्ग कहे व माने जाने वाले कश्मीर घाटी क्षेत्र में हम खुशी-खुशी जिंदगी जी रहे थे। मैं और मेरे भाई स्कूल जाते और फिर खाना खाकर चले जाते हमारे अखरोठ और सेब के बागों में। बाग एक दो नहीं कई बीघाओं में फैले बाग। मन करे उतने अखरोठ खाओ, मन करे वही सेब तोड़ लो। बाग में जाते तो वहां काम करने वाले भी हमारी आओ भगत में लग जाते। घर लौटते। लेकिन ये दिन खो गए और एक रात ऐसी आई कि उस समय इतनी छोटी होने के बावजूद आज भी वो रात याद करती हूं तो सहम जाती हूं। वो ‘काली’ रात कट ही नहीं रही थी, बहुत लम्बी थी।
खेलना, स्कूल और बाग जाना, सब छूट गया

बचपन में हमारे पास-पास दो घर थे एक दो मंजिला, दूसरा तीन मंजिल का। हम उसमें दौड़ लगाते। लुक्का-छिप्पी खेलते। हालांकि इसके बीच परिवार के बड़ों को घाटी के बिगड़ते हालात के बारे में बात करते सुनते थे। तब कुछ-कुछ ही समझ में आता था, लेकिन डर का माहौल घर-गली-मोहल्ले में घर कर गया था। हमारे आस-पड़ोस के हिंदू अपने घर छोड़कर जाने लगे। धीरे-धीरे हमारा स्कूल और बाग जाना बंद हो गया। इसके बाद खेलना भी बंद हो गया। पिताजी-माताजी को भाई और खासकर मुझे लेकर डर सताने लगा। पापा को लग रहा था कि हालात और खराब होंगे। मैं घर में ही कैद होकर रह गई थी। खिड़की से झांकने तक की इजाजत नहीं थी। बचपन खो गया था। पिताजी ने जल्दबाजी में जोखिम भरा फैसला लेते हुए बड़े भाई को घाटी से जम्मू भेज परिवार के लिए ठहरने का इंतजाम करने को कहा। भाई कुछ व्यवस्था कर पाते इससे पहले ही हालात और बदतर हो गए।
डरे-सहमे आधी रात को घर से निकले

फिर 1990 की वो काली रात आई जिसके बाद सब बदल गया। हमारे रिश्तेदारों ने बोला कि अब यहां नहीं रुक सकते। रात को दो बजे जो हाथ आया वो लेकर डरे-सहमे घर से निकले। हर कदम आगे रखते और पिताजी-माताजी बार-बार पीछे मुड़कर अपने घर-मोहल्ले को देखने के लिए नहीं, बल्कि खतरे को भांपने का प्रयास कर रहे थे। घर छूट रहा था, जान बचाने के लिए खासकर मेरी सुरक्षा की चिंता में सब कुछ छोड़कर अमीरी से गरीबी की ओर कदम बढ़ा रहे थे। सुनसान में बिना आवाज के चले जा रहे थे। भविष्य का एक-एक पल रहस्यमयी था। सबके मन में आशंका थी कि जिंदा पहुंच सकेंगे कि नहीं। जिन कश्मीरी पंडितों और हिन्दुओं के साथ बरबरतापूर्ण अत्याचारों की खबरें सुनी थीं, उन्होंने हमारे दिलों में डर भर दिया था।
फटे टेंटों में भीगते हुए काटी जिंदगी

हम जम्मू आ गए। जम्मू आकर कुछ दिन हम शरणार्थी शिविरों में रहे। आज भी याद है जब बारिश आती थी तो मेरे पापा और भाई टेंट को पकड़कर खड़े रहते थे, जिससे बारिश का पानी अंदर न आए। पापा कुछ दिन बाद एक कमरे का बंदोबस्त कर पाए। दो मकानों से हम एक कमरे में आ चुके थे। उसमें हम परिवार के छह लोग। हमारी रसोई भी यही कमरा था। घाटी, बाग, खेत, मकान और साथ ही साथ सुकून और संपन्नता भी हमसे छीन ली गई। कश्मीरी पंडित होने की सजा दी गई थी हमे। उस गम से उबरने में, सबकुछ ठीक होने में बरसों लग गए।
अब लग रहा हैं कि दौड़कर वापस चली जाऊं

अब हमें सबकुछ फिर से शुरू करना था। जिंदगी की नई शुरुआत करनी थी। कभी जो कश्मीर का धनी परिवार हुआ करता था, आज वो एक कमरे में सिमट गया। पापा पीडब्ल्यूडी में नौकरी करने लगे। स्थितियां कुछ ठीक तो होने लगीं, लेकिन हर बात पर हमें हमारा घर, वहां की रौनक याद आती। अब मैं जयपुर के मानसरोवर क्षेत्र में रह रही हूं। आज भी लगता है कि अपने घर जाऊं, अपने बागों में फिर एक बार दौड़ लगाऊं। एक बार फिर से कश्मीर की ताजी हवा को महसूस करूं। केंद्र सरकार ने कश्मीर को लेकर जो अहम फैसला लिया है, उसके बाद उम्मीद जगी है कि हम हमारे बच्चों को अब उनकी जड़े दिखा पाएंगे। वो भी देख सकेंगे, अपनी विरासत।

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