शशांक ने आम के पेड़ को देखा तो लगभग मरणासन्न था। वह अंदर आ गए, दफ्तर का समय हो रहा था।
दिसंबर का महीना और शशांक ठंड को लगभग कोसते हुए चाय सुड़क रहे हैं। सोफे पर बैठे हैं, अंदर स्वेटर, इनर और ऊपर से शॉल। चाय का कप हाथ में और इन्हें ठंड लग रही है। अंदर से काम करने वाली कांता बाई ने उन्हें देखा और शायद ऐसा ही कुछ सोचा होगा। बदन पर गर्म कपड़े के नाम पर कुछ नहीं और फिर ठंडे पानी में बर्तन, पौंछा करती कांता ऊपर से मेमसाब मतलब शशांक की धर्मपत्नी कामना सवा सेर ठहरीं। उनका बस चले तो पांच सौ रुपए महीने में दिन भर उससे काम करवाए।
दुनियाँ में कुछ लोग आए ही क्यों? कई बार तो लगता है कि भगवान ने इन्हें गलती से भेज दिया। हमारे लाड़ले शशांक इन्हीं में से एक हैं। जब भी फुर्सत मिलेगी टीवी खोलेंगे और लगेंगे अपराध आधारिक धारावाहिक। इतना देखते हैं कि अब हर किसी को वे बस शक की निगाहों से ही देखने लगे हैं। कोई बेचारा रास्ता पूछ ले इनसे बस, खैर नहीं उसकी। कौन हो? इधर तो पहले कभी दिखे नहीं। रास्ता पूछने वाला बेचारा सिर पकड़ कर रह जाता है। पहले तो वे दरवाजा ही नहीं खोलते हैं। कामना से उनका झागड़ा इसी बात पर होता है कि उसे वही पारिवारिक षड़य़ंत्र वाले ड्रामे बहुत भाते हैं। इसलिए कामना का अलग टीवी चलता है, दूसरे कमरे में।
दोनों की दुनियाँ टीवीमय है। घर में इकलौता बच्चा है ईशान जो जवानी की दहलीज पर है। ऐसी उम्र में है कि कामना और शशांक की हर बात का बस विरोध ही करना है। कोई किसी को समझाने को तैयार ही नहीं है। हालात यह है कि ईशान जब भी घर में नहीं होता है तो वह अपने कमरे का ताला लगाकर जाता है। मां-बाप परेशान हैं कि आखिर क्या है जो ताला लगाकर जाता है। पिता तो आधे इसी में हो गए हैं।
बेचारा ईशान वह खुद इसके लिए जिम्मेदार नहीं है। उसका जैसा पालन-पोषण हुआ वैसा ही वह बनेगा। अपनी मां की किटी पार्टियां, फैशन, सहेलियां, जिंदगी, शौक और दिखावे के बीच वह बड़ा हुआ तो कई बार उसे जीवन के हाशिए ही मिले। बेचारे बच्चे के जीवन में नहले पर दहला थे उसके पिता। सब कुछ लाकर उन्होंने घर में रख दिया उसके लिए, सिवाय खुद के। समय नहीं है जी। उसे पटकना है, जीतना है इसकी तो खैर नहीं। बिल्कुल तितर-बितर जीवन। इन सब के बीच बड़ा हुआ तो यकीन मानिए उसके पास भी कौन-सा समय होगा।। अब हालात ये हैं कि शक करते पिता और बन-ठन कर पर्स हिलाती इधर-उधर का भूमंडल नापती माता के बीच बड़े हुए बच्चे से सब उम्मीद लगाए बैठे हैं कि वह संत बने।
पिताजी चाहते हैं कि वे जो कहें, वह सुने। मां यह चाहती हंै कि बेटा उनके अनुसार जीवन जिए। कैसी विडंबना है कि आदमी हमेशा अपने सामने वाले को आदर्श व्यक्ति बनाना चाहता है, चाहे खुद अपने पापों का घड़ा भर चुका हो।
जो बेटा कभी उनकी हर बात मानता था आज उनकी तरफ देखता भी नहीं है, कुछ सुनना तो दूर। कामना बीमार पड़ी तो बेटा घर से नदारद। दवाई लाने को कहा तो कर दिया कोई बहाना
और दोस्तों के साथ निकल गया। इसमें तो कुछ भी मेरे जैसा नहीं है, पिता ने ग्लानि भरी आवाज में कहा था।
मां बिस्तर पर पड़े-पड़े सोचती रह गई कि आखिर इसे हमारी फिक्र क्यों नहीं है? मिसेज शर्मा का लड़का तो आईआईटी में चला गया। मिसेज वर्मा का बेटा एमबीबीएस में चला गया और यही बचा था मेरी नाक कटाने के लिए। यहीं के कॉलेज में बीएससी करने लगा है। अभी तक मैं ही उनसे जीतती थी, लेकिन इसने कहीं का नहीं छोड़ा। मेरी तो किस्मत ही खराब है। कामना का उस दिन तो और ज्यादा मूड खराब हो गया जब उसे पता चला कि काम करने वाली बाई का लड़का पूरे देश में पहले नंबर पर आकर आईआईटी में जाने वाला है। पूरे अखबार रंगे पड़े हैं, कांता के लड़के के बारे में। कांता जब मिठाई खिलाने कामना के घर आई तो जैसे ढेरों मन पानी उस पर गिर गया हो।
उसका मन तो नहीं था मिठाई खाने का परंतु क्या करती। उधर शशांक को तो जैसे सांप ही सूंघ गया। उसे तो ईशान से ज्यादा दुख कांता के लड़के के चयन होने का था।
उथले मां-बाप की उथली संतान। यह आम बात हो चली है हमारे समाज में। जीवन में भागदौड़ करते-करते कब हम क्या खो रहे होते हैं, यही हमें पता नहीं होता है और जब खो देते हैं तब उनके कारणों को ढूंढते हैं। कामना और शशांक भी यही कर रहे थे। कहां कमी रखी हमने। इसके कहने पर कोटा कोचिंग के लिए भेजा। नए से नया फोन दिलाया। कभी कहा यह गेम ला दो तो, वह लाकर दिया। कभी कहा दोस्तों के साथ पिक्चर देखना है तो खूब सारे पैसे देकर भेजा।
लॉकर हमेशा उसके लिए खुला था, जब जो चाहे वह ले जाए। कभी मना नहीं किया। कार ठोककर लाया तो कुछ नहीं बोला। स्कूटर से सिर फोड़ लाया था तो चार महीने अस्पताल में रहा। जो कहा वह किया। इस सब का इसने हमें क्या सिला दिया। उस कांता के लड़के को देखो। झाुग्गी में रहते हैं। घर में बिजली भी बड़ी मुश्किल से मिली है। घर-घर बर्तन धोती है। कोचिंग भेजना तो दूर की बात। उसकी साइकिल के लिए कांता ने हमसे ही पैसे उधार लिए थे।
आज मंदिर में खड़े है शशांक और कामना। वहां पंडितजी को ईशान की कुंडली भी दिखाने आए हैं। कितना अफसोसजनक है कि तमाम बातें हो जाने पर भी हम कितने नादान हैं। अपनी गलतियां समझा ही नहीं आतीं हैं। ऐसे कई शशांक और कामनाएं हमारे समाज में फैले हैं जिन्हें पता नहीं है कि वे मां-बाप के नाम पर अपनी संतानों के लिए धीमा जहर हैं।
किटी पार्टी से सीधे भगवान का मंदिर, कामना के लिए आज सूर्य पश्चिम से उग रहा है। पंडित ने राहू-केतू, मंगल पांचवा कर अपना उल्लू सीधा किया और बहुत सारे उपाय बता दिए। मंदिर, मजार, गंडे, ताबीज सब कर लिए मां-बाप ने। परिणाम सामने था कि बेटा पहले साल में फेल हो गया। कौनसे भगवान? कैसे भगवान? काहे की कुंडली? बस विश्वास ही उठ गया सब पर से।
वास्तव में होता ही ऐसा है। भगवान पर से नहीं खुद पर से विश्वास उठता है। सारी गलती भगवान की है। अभी भी वे खुद तक नहीं पहुंच पा रहे थे। शशांक और कामना टूटे अरमानों के साथ आंगन में बैठे हैं। सामने मरणासन्न आम के पेड़ के नीचे बहुत सारी खरपतवार उग आई हैं। उनमें कुछ बबूल के पौधे भी हैं, जो लंबे समय देख-रेख नहीं होने से काफी बड़े हो गए हैं।