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कहानी-क्या मैं अकेली ही दोषी हूं?

locationजयपुरPublished: Jan 23, 2021 11:14:21 am

Submitted by:

Chand Sheikh

सुधा के तह करके रखे सभी पॉली बैग जैसे मुस्कुरा रहे थे और बाहर निकलते हुए डस्टबिन पर नजर पड़ी तो लगा जैसे वह भी इत्मिनान की सांस ले रहा हो।

कहानी-क्या मैं अकेली ही दोषी हूं?

कहानी-क्या मैं अकेली ही दोषी हूं?

स्वाति ‘शकुन्त’

बाहर तेज बारिश आज भी अपने पूरे शबाब पर थी। मैं बालकनी में खड़ी स्वयं को समुद्र के बीच एक टापू पर महसूस कर रही थी। इमारत के चारों तरफ पानी घुटनों के ऊपर आ गया था। पिछले दिनों कॉलेज से आते समय कार घर के पास ही बंद पड़ जाने से उसे वहीं छोड़ जैसे-तैसे घर में तो आ गई थी परंतु वापस कॉलेज जाना मुनासिब न हो सका।
पिछले चार दिनों से फोन पर ही छुट्टियां बढ़ाई जा रही थी, आज मन बनाया चलो घर में कैद हैं और समय भी मिल ही रहा है तो बिल्डिंग में ही पड़ोसी धर्म निभाया जाए। चलकर उनके हालचाल पूछे जाएं।
इस शाम-सी लगने वाली दोपहर में सुधा का दरवाजा खटखटाया…।
उसके पति ने दरवाजा खोला। ‘ओह माफ करना भइया, सुधा अकेली ही होगी सोचकर मिलने चली आई थी।’ ‘अरे नहीं-नहीं! प्लीज आइए न भाभी। आप देख ही रहे हैं घर से निकलना दूभर हो गया है, अब तो इस भराव में टू व्हीलर से जाना भी मुश्किल है।’
हां! मैंने सहमति में सिर हिलाया।
सुधा सामने बैठी किराना के सामान में कुछ उलझाी-सी लग रही थी।
अरे सुधा! यह इतने पॉलिथीन बैग क्यों बिखरे हुए हैं, क्या कर रही हो इनका?
‘आपके नक्शे-कदम पर चल रही हूं।’ सुधा ने मेरी बात पूरी होने से पहले ही अपनी बात पूरी की।
‘मेरे नक्शे कदम पर?’ मैंने मुस्कुराते हुए आश्चर्य से पूछा?
‘हां मैडम आप हमेशा जो घर में सामान में आई पॉलीबैग को समेट- समेट कर रखते रहते हो न! मैं भी अब सहेज कर रख रही हूं।’
मैंने बीच में ही वाचालता करते हुए कहा, ‘हां तभी आजकल तुम्हारे डस्टबिन में बाहर झाांकती पॉलिथीन नजर नहीं आती।’ उसने सब्र खोए हुए फिर अधूरी बात कह ही डाली। ‘पता नहीं प्रधानमंत्री कब अचानक कह दें कि बहनों और भाइयों आज रात से पॉलिथीन बंद!’
अब हम सब एक साथ हंस पड़े थे! ‘ओह! तो यह बात है पॉली बैग बंद न हो जाए इसलिए यह सारी मशक्कत की जा रही है।’ मैंने समझााइश भरी नजरों से सुधा को टटोलना चाहा।
कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद सुधा चाय बनाने खड़ी हुई और मैं उसके पॉलीबैग समेटने लगी। घर -परिवार के हाल-चाल लेते-लेते वह पूछ बैठी, ‘मैडम कॉलेज नहीं जा रहे हो आजकल।’
‘हां देखो न। थोड़ी-सी बारिश में सड़कें टापू हो रही हैं।’ तभी मनीष अंदर से बोल पड़े, ‘मैडम जी यह सब हमारी श्रीमती जी की मेहरबानी है।’ सुधा भी तपाक से बोल पड़ी, ‘यह लो अब इंद्र देवता को मैंने कहा था आप बरसो।’
‘जी नहीं, यह जो आप रोज पॉलीबैग निकाल-निकालकर फेंकती हो न उसी से सारे नाले रुके पड़े हैं, जो बारिश के पानी को निकलने नहीं दे रहे। ‘सुधा के पति का स्वर थोड़ा कठोर होने लगा था।
मुझो बीच में बोलना ही पड़ा। ‘हां हम लोग बहुत लापरवाह हो चले हैं, बिना सोचे समझो प्लास्टिक का उपयोग करते हैं, फिर उसे बेपरवाह होकर कहीं भी डाल देते हैं। काश! अब तो हम लोगों में समझा आ जाए।’
सुधा ने चाय का कप थमाते हुए फिर अपना पक्ष मजबूत किया। ‘हां देखो न क्या मैं अकेली ही काम में लेती हूं सारा प्लास्टिक। सारी दुनियाँ काम में ले रही है, और नगर निगम को भी तो बारिश से पहले नालियां साफ करानी चाहिए न।’
‘हां सही कह रही हो परंतु हमारे भी तो कोई कत्र्तव्य हैं न।’ मैंने सुधा का हाथ अपने हाथ में लेते हुए उसे शांत करते हुए कहा, ‘और तुमने तो पॉलिथीन अब बाहर फेंकना भी बंद कर दिया है।
बस अब हमारे मिलने वाले उन लोगों को समझााना पड़ेगा जो इस प्लास्टिक का दुरुपयोग कर रहे हैं।’ सुधा ने सहमति में सिर हिलाया।
सुधा के तह करके रखे सभी पॉली बैग जैसे मुस्कुरा रहे थे और बाहर निकलते हुए डस्टबिन पर नजर पड़ी तो लगा जैसे वह भी इत्मिनान की सांस ले रहा हो। सुधा के फ्लैट से लौटते वक्त मुझो अब बेहद खुशी थी कि प्लास्टिक बहिष्कार में यह एक कड़ी मजबूत हो रही है।

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