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कहानी-पलाश का फूल

locationजयपुरPublished: Apr 25, 2021 12:01:21 pm

Submitted by:

Chand Sheikh

सुमन सोचने पर मजबूर हो गई कि पुरुष की नजर में स्त्री की इच्छा-अनिच्छा, आत्मसम्मान की कोई कीमत नहीं। वह मात्र एक वस्तु है जिसे जब इच्छा हुई ठुकरा दिया और जब इच्छा हुई गले से लगा लिया।

कहानी-पलाश का फूल

कहानी-पलाश का फूल

मेहा गुप्ता

आज सुमन फिर से विचारों में खोई पलाश के पेड़ के नीचे बैठी थी। जब भी वह बहुत उदास हो जाती या आर्यमान की बहुत याद सताने लगती वह यहां आकर बैठ जाती और उससे अपने दुख-सुख की हर बात करती। सब कहते, ‘कितनी खुशकिस्मत है वह कि उसे आर्यमान जैसा सुदर्शन पति मिला है जो पेशे से पायलट है।’ पर उसके मन का दुख सिर्फ वही जानती थी। नियति के उसकी किस्मत में लिखे शोकगीत वह किसे सुनाती। सोचते हुए उसकी आंखों की कोर पर अटके हुए आंसू सरकते हुए उसके गालों तक आ गए। आंसूओं के साथ उसके भीतर जीवन के बीते वर्ष भी बहने लगे।
उसकी शादी हुए एक हफ्ता बीत गया था। कितने अरमान लेकर उसने अपने ससुराल की दहलीज पर कदम रखे थे। उसे पता था कि शादी के दस-बारह दिन बाद आर्यमान को ड्यूटी पर लौटना है। वह रोज हसरत से उस पल का इंतजार कर रही थी कि वे आकर उससे भी कहेंगे कि ‘अपना भी सामान पैक कर लो।’ पर तब तो क्या… इतने सालों में भी यह पल उसकी जिंदगी में कभी नहीं आया। वे जब भी आते, मां- बाबूजी समझााते, ‘इस बार तो बहू को भी अपने साथ ले जा। कब तक वह यहां अकेली रहेगी।’
मां मेरा महीने में 20 दिन का टूअर रहता है। सुमन को वहां भी अकेले ही रहना पड़ेगा और वह यहां अकेली कहां हैं? आप लोग हो न उसके साथ।’ कहते हुए वे बात को टाल जाते थे। पर सुमन इसके पीछे छिपी वजह को जानती थी। वह उनके स्टेट्स से मेल नहीं खाती थी। उसकी सुरमई आंखों, तीखी नाक और गुलाबी गालों पर ही तो दिल आ गया था कप्तान साहब का जब मांजी ने उन्हें सुमन का फोटो दिखाया था। पहली नजर में ही उसके रूप-रंग से ऐसे सम्मोहित हुए थे कि सुमन की डिग्री पर उनका ध्यान नहीं गया था। वह कम पढ़ी और गांव के परिवेश में पली-बढ़ी थी।
उसके रूप के मोहपाश से बंधे, शादी के पहले साल तो आर्यमान चार-पांच बार घर आए थे। पर साल दर साल उनके घर आने का सिलसिला घटता गया। यही नहीं वे जब भी आते उनका अकेले जाना तय होता था। अब वे वहीं से सुमन के अकाउंट में पैसा डालकर अपना फर्ज पूरा कर लेते। सुमन की जिंदगी में अब सिर्फ दो ऋतुएं रह गई थीं, जब भी आर्यमान आते उसकी जिंदगी में बहार आ जाती। बाकी तो मरूस्थल सी तेज गर्मी में झाुलसती रहती। उनकी अनुपस्थिति में वह सोचती, इस बार वे जब भी आएंगे उनसे ढेरों शिकायतें करूंगी। जब वे सामने होते, स्त्रियोचित स्वाभिमान उसके आड़े आ जाता। सोचती, ‘जब उन्हें ही मेरा आंसूओं से भीगा चेहरा और सूजी हुई आंखें दिखाई नहीं देती तो मैं क्यों उनके गले पड़ूं।’ इस बीच उसे इधर-उधर से यह समाचार भी मिल गए थे कि उनकी जिंदगी में कोई और लड़की भी है। इसके बाद से उसने पति से कोई उम्मीद नहीं रखी।
इस बीच सुमन की गोद में एक बेटी भी आ गई थी। उसका चेहरा देखकर उसमें फिर से जीने की लालसा जागी थी। उस स्वाभिमानी ने फिर से पढ़ाई शुरू कर ली और उतरोत्तर प्रगति करती चली गई। बीए, एमए के बाद पीएचडी की और एक कॉलेज में प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हो गई। इन बरसों में उसने अभावों को स्वीकार कर लिया पर आर्यमान के सामने हाथ फैलाना उसे मंज़ूर नहीं था। उसने बेटी के होने से लेकर कॉलेज तक पहुंचने का खर्च खुद ही उठाया। यहां तक कि बहू होने का फर्ज भी अकेली निभाती चली गई।
बाबूजी के अंतिम संसकार के वक्त भी तो आर्यमान समय से कहां पहुंच पाए थे! सारी वर्जनाओं को नकारते हुए उसने अपनी बेटी के हाथों बाबूजी का अंतिम संस्कार करवाया। आर्यमान की अनुपस्थिति में उन सबके जीवन में उपजे अवकाश को अपने अतिरिक्त स्नेह से भरती गई कभी उफ्फ तक नहीं किया।
वक्त पंख लगाकर उड़ता रहा। आर्यमान इंटरनेशनल फ्लाइट्स उड़ाते थे और लगातार सफर, खाने-पीने में बदपरहेजी, बढ़ती उम्र के चलते उनकी सेहत उम्र से पहले ही लडख़ड़ाने लगी थी। अब वे पायलट के पद के लिए फिट नहीं थे। नियमों के मुताबिक उन्हें समय से पहले रिटायरमेंट लेना पड़ा। वे हमेशा के लिए अपने घर लौट आए। आर्यमान अब बहुत बदल गए थे। वे अतीत को झाुठला हर वक्त सुमन के पास आने की, उसके दिल में अपने लिए जगह बनाने की हर संभव कोशिश करते। सुमन सोचने पर मजबूर हो गई कि पुरुष की नजर में स्त्री की इच्छा-अनिच्छा, आत्मसम्मान की कोई कीमत नहीं।
वह तो मात्र एक वस्तु है जिसे जब इच्छा हुई ठुकरा दिया और जब इच्छा हुई गले से लगा लिया। पर उसे अब पुरुष के स्कंधस्पर्श की कामना नहीं थी।
ठिठुरन भरी एक सुबह थी वो, और उनकी 25वीं वर्षगांठ भी थी। जब वह सोकर उठी, आर्यमान उसके पसंद की अदरक और इलायची वाली चाय लेकर खड़े थे, साथ में यूरोप टूअर की दो टिकट भी थी। जो आंसू बरसों से ओस बनकर आंखों पर जमे हुए थे प्यार की उष्णता से पिघलकर बहने लगे और साथ में इतने साल की शिकायत, ग़ुस्से को भी अपने साथ बहा ले गए। ‘मुझो माफ कर दो सुमन। मैंने तुम्हें कभी वह प्यार नहीं दिया जिसकी तुम हकदार थी, ‘कहते हुए उन्होंने सुमन का हाथ पकड़ लिया।
एक-दो दिन से उसे चक्कर से तो आ ही रहे थे पर उस दिन तो आर्यमान के सामने रोते-रोते स्पंदनहीन हो गई थी सुमन। कुछ देर बाद तक भी उसे होश नहीं आया तो उसे हॉस्पिटल ले जाया गया। रिपोट्र्स से पता चला वह ब्रेन कैंसर की थर्ड स्टेज पर है।
वैसे तो यह पलाश के पेड़ पर फूलों के खिलने और पत्तों के झाड़ जाने का समय था… पर सुमन के तो चारों तरफ आर्यमान के प्यार के रूप में हरी-भरी शाख बांहें पसारे उसे अपनी आगोश में लेने को तत्पर थीं। अब वे गुलाब का फूल तो है नहीं जो पत्तों की छांव में पनाह पा सके। वह तो पलाश का फूल है जो अनंत काल से अकेले ही झाुलसता आया है। अगर वह कुछ समय और पति का प्यार पाती तो उसके अंदर की पत्नी का सुप्त प्रेम, समर्पण जाग जाता और वो उनका दिया जिंदगी भर का अपमान, पीड़ा सब भूल जाती। जो उसके अंदर की स्त्री को कतई मंज़ूर नहीं था।
उसकी बीमारी के बारे में उसे किसी ने नहीं बताया था पर वह समझा गई थी कि उसके मुरझााने का समय आ गया है .. .उसे झाडऩा ही होगा…उसका और आर्यमान का मिलन संभव नहीं और उसे भी मंज़ूर नहीं।
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