नरेश की लंबी बीमारी और जानलेवा बीमारी से युवावस्था में ही उसकी मृत्यु। विवाह के तीन-चार साल की अल्पावधि में ही अकल्पित, अनपेक्षित, बहुत कुछ हो गया। कई बार उसे वह सब अविश्वसनीय सा लगता है। क्या से क्या हो गया।
निरूपमा-इस नगर का विस्तार लेते स्थान के कन्या महाविद्यालय में प्राध्यापिका होकर आई थी। कुछ दिनों बाद ही महाविद्यालय में ‘स्थापना दिवस’ और ‘ऋतुराज’ के स्वागत में ‘वसंतोत्सव’ मनाया जाना था। उसकी कलात्मक अभिरूचि, सुरूचिसम्पन्न व्यक्तित्व को देखकर उसे महाविद्यालय में आते ही, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रभारी बना दिया गया था। उस दिन कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था, सार्वजनिक निर्माण विभाग के युवा अभियंता नरेश पंत को। वही उस सब डिवीजन में बड़े अधिकारी थे और हमारी ‘प्रबंध समिति’ के संरक्षक भी। शैक्षिक,सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उन्हें विशेष उत्साह था। निरूपमा ने उस दिन के कार्यक्रम के लिए श्रमपूर्वक अवसरानुकूल आइटम चुने थे। कई-कई बार रिहर्सल कराई थी। कार्यक्रम की संचालिका के नाते-मुख्य अतिथि से अनुरोध निरूपमा को ही करना था, फिर दीप स्तम्भ तक उन्हें ले जाना था। पता नहीं,क्यों कैसे मंच से उठकर नरेश के समीप आते ही वह सिहर सी उठी।….अंत में मुख्य अतिथि कलाकारों को इनाम बांटने खड़े हुए। हर बार उसे ही नरेश को उपहार पकड़ाने थे। मोहाविष्ट-सी उसने अपनी भूमिका का निर्वाह किया। नरेश किन्हीं किन्हीं संदर्भो में प्राय: महाविद्यालय में आते रहते। उसकी सौम्य, संयत मुद्रा, शालीन व्यक्तित्व, स्वप्नदर्शी तरल आंखों की कशिश-निरूपमा अनायास उसकी ओर खिंचती अभिभूत होती चली गई। अंतत: जिसकी स्वाभाविक परिणति उनके परिणय में हुई।
नरेश-निरूपमा का वैवाहिक जीवन सहज, उल्लास, आनंदपूर्वक बीत रहा था। नरेश किंचित गंभीर प्रकृति का था, सुधी,संवेदनशील निरूपमा को जीवनसंगिनी के रूप में पाकर उसे जीवन में कहीं किसी रिक्तता का आभास नहीं था। परिवार भार से वे अभी मुक्त रहना चाहते थे क्योंकि निरूपमा को अपनी पीएच.डी. पूरी करनी थी। सब कुछ लयबद्ध गति से चल रहा था कि ……तभी (हिचकोले खाती निरूपमा के अंदर जैसे कुछ चटख गया) सहसा नरेश गम्भीर रूग्ण हो गया।
अस्पताल में जांच के बाद पता चला कि उसका रोग साधारण नहीं, उसके हृदय में गहरा सुराख है, जिसका ऑपरेशन शत-प्रतिशत सुरक्षित नहीं। निरूपमा पर तो जैसे गाज गिर गई। उसने हर संभव इलाज कराया,पर कोई लाभ नहीं हुआ। उनके भरे पूरे वैवाहिक जीवन को ग्रहण लग गया। तभी निरूपमा के महाविद्यालय का वार्षिकोत्सव आ गया। उसे मैनेजमेंट की ओर से बुलावा आया, जाना जरूरी था-हालांकि उसकी चिंतावश कतई इच्छा नहीं थी। पर उसकी देखरेख के बिना सांस्कृतिक कार्यक्रम सम्भव नहीं था। नरेश ने भी अनुरोध किया-यह सोचकर कि बाहर जाने से उसका मन कुछ हल्का हो जाएगा। अन्यमनस्क स्थिति में तैयार हो वह नरेश के पास गई। कॉटन की प्लेन साड़ी में उसे देखकर नरेश जैसे चौंक गया। उसने आग्रहपूर्वक उत्सव के अनुरूप वो आसमानी रंग की सिल्किन साड़ी उसे पहनवा दी, जो वह उसके लिए भोपाल एम्पोरियम से लेकर आया था। निरूपमा मन पर भारी पत्थर रख कर भी जिंदगी के इन बचे-खुचे लम्हों में नरेश को पूरा सुख सुकून देना चाहती थी……… समारोह लंबा था, पर प्राचार्य से अनुमति लेकर वह जल्दी घर लौट आई। उसे देखकर नरेश एक बारगी जैसे कहीं लौट गया, लीन हो गया। निरूपमा को उसने एकाएक अपनी शैया पर बिठा लिया और उससे वचन लिया कि वह हमेशा उसके बाद भी-अपने नरेश के लिए -उसी तरह रहती रहेगी, जैसी वह हमेशा उसे देखना चाहता था। निरूपमा ने एकदम उसका मुंह बंद करने की चेष्टा की-वह कुछ भी अशुभ सुनने को तैयार न थी। फूट पड़ी उससे लगकर देर तक सिसकती रही, पर जब तक उसने रूंधे गले से ‘हां’ न कर दी, नरेश ने उसे पास से नहीं उठने दिया। दिन पर दिन नरेश की जीवनीशक्ति चुकती जा रही थी। तभी, एक दिन वह अपने में डूबी-सी सिरहाने बैठी उसका सिर दबा रही थी। घड़ी को देखकर वो नरेश को दवा देने को उठी, यकायक नरेश को खांसी का तेज दौरा आया,जैसे उसकी सांस घुट रही हो। उस समय वह अकेली थी-संज्ञाहीन-सी डॉक्टर को फोन मिलाने को बढ़ी,तभी नरेश ने हिचकी के साथ दमतोड़ दिया।
निरूपमा की दृष्टि अनायास घड़ी की ओर गई-ओह, वह कहां खो गई थी कॉलेज उत्सव का तो समय हो गया। ऊहापोह में वह ठीक से तैयार भी न हो पाई। एक कार्यशील नारी होने के नाते उसे बाहर जाना पड़ता है। पर पतिविहीन नारी को समाज और उसके संगी-साथी, विचारक्रांति के स्वयंभू पुरोधा बुद्धिजीवी सब कोई सहज सामान्य ढंग से रहते और जीवनयापन करते स्वीकारने को प्रस्तुत नहीं। ये संकुचित नजरिया हम सबने विरासत में परम्परा से लिया है। निरूपमा के बाहर पैर रखने से लेकर,घर लौटने तक उसे आभास होता जैसे उसकी छाया को सूंघ-सूंघकर घुसपैठिए हर समय कुछ थाह पाने की सेंध लगाने की फिराक में रहते थे।
उसे सदा से ही भारी प्रसाधन,भड़कीले परिधानों से लकदक हो कहीं जाने-आने या बन ठन कर घूमने का कभी शौक नहीं रहा था। अब वह चाहे कैसी भी रहे, कुछ भी करे, सवालों के सलीब पर टंगे रहने को बाध्य थी। वह नरेश के दिए वचन से निष्कृति नहीं पा रही थी-कैसे कहे-क्यों नरेश, तुमने क्यों कहा था…। क्यों वचन लिया था कि वह उसके बाद भी सुदर्शन सलीके से रहेगी। तब तो नरेश के विकल मन को शांति देने के लिए उसने ‘हां’ भर दी। पर अपने इस अंतरंग करूण सत्य को वह औरों को कैसे समझााए। क्या बताए उन्हें, यह ‘कंडीशंड’ समाज है-जिसके बीच जीने को वह अभिषप्त है। उससे जिसकी भिन्न अपेक्षाएं हैं।
समाज चाहे कितना भी प्रगतिशील होने का दम्भ भरे, पर एक विधवा से वह खास तरह की ‘आचरण संहिता’ और ‘जीवनदर्शन’ अपनाने के लिए पूर्ववत् दुराग्रही है। पर नहीं….कुछ भी हो..उसे अपने लिए नहीं, नरेश की खातिर ऐसे अवरोध को तोडऩा होगा। वह उसके प्रथम और अंतिम प्रेम को मन, प्राण, आत्मा, रोम-रोम में बसी उस पावन स्मृति को उसके विश्वास को, कैसे ठेस पहुंचा सकती है। ..और वह झटके से उठ खड़ी हुई,मानो उस द्वन्द्व से वह मुक्त हो गई हो। अपने वाड्र्रोव खोलकर उसने नरेश द्वारा ग्वालियर की प्रदर्शनी से लाई गई धानी रंग की चंदेरी की साड़ी पहन ली। पर यह उसने कोई अपराध नहीं किया,फिर उसे क्यों ग्लानिबोध हो। इस प्रतिगामी समाज की लांछना,भत्र्सना को वह कदापि प्रश्रय नहीं देगी। उसने जिससे वादा किया है,उसकी जवाबदेही उसी के प्रति है। उसे धोखा देने का पाप वह नहीं कर सकती और वह अपने को सहेजती, संजोती ऑटो लेकर महाविद्यालय की ओर चल पड़ी…।