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कहानी-पुल पार

locationजयपुरPublished: Jan 23, 2021 11:02:56 am

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Chand Sheikh

सामने वह सरकारी लिफाफा है जिसे देखकर सांस लेना भूल गया। एकदम सही अंदाजा निकला मेरा। यह तो मेरे तबादले का आदेश-पत्र है। मैं सन्नाटे में खड़ा रह गया हूं। कोई इतनी सटीक भविष्यवाणी कैसे कर सकता है?

कहानी-पुल पार

कहानी-पुल पार

इंदिरा दांगी

स्कूल से निकलते अंधेरा घिर आया है; इंस्पेक्शन था और सब जरूरी कागज भेजने थे उसके बाद तो…। सप्ताहांत में, प्रभारी प्रिंसिपल कभी नहीं बनना चाहता क्योंकि जब प्रभारी प्रिंसिपल होता हूं, अक्सर ही कोई नया काम सिर होता है। मुझो शनिवार की शाम निकलना होता है अपने महानगर को और तब दिल-दिमाग उचाट हो चुका होता है यहां के सब कुछ से। अभी घंटों कार चलानी है। अब मैं इस अंधेरे बियाबान में अपनी ही कार की रोशनी में कच्चे-टूटे रास्ते पर मध्यम गति से आगे बढ़ चला हूं। भील पारधियों का गांव भी पीछे छूट गया और अब जबकि राह में इक्का-दुक्का आदमी या पालतू मवेशी भी दिखने बंद हो गए, दिल धड़का; सच में निकलने में बड़ी देर हो गई।
इस बरस जब अंतत: मुझो सरकारी शिक्षक की नौकरी मिली तो परिवार निहाल हो गया। नाते-रिश्तेदार कहने लगे, पिछले जन्म में हंसों को मोती चुगाए होंगे तो सरकारी नौकरी पाए हो। पहली पोस्टिंग इतनी दूर के आदिवासी टोलों के इलाके में मिली तो भी सब ने हौसला बंधाया। कुछ दिन कर लो एडजस्ट फिर ट्रांसफर करवा लेना। यों यहां स्कूल के ही एक कमरे में रहता हूं। एक पुरानी कार खरीद ली है और सप्ताहांत में पहाड़-नदी-जंगल-घाटी के पार दो सौ किलोमीटर दूर के अपने महानगर-घर हो आता हूं।
पहाड़ी रास्ते से कार धीरे-धीरे उतारता चला आ रहा हूं। एक बार नदी के पुल तक पहुंच जाऊं फिर रास्ता बेहतर है। जंगल-घाटी पार हाइवे पकडऩे के बाद तो पलटकर नहीं देखना पड़ता। अब सामने पुल दिख रहा।
घुप्प अंधेरे में कल-कल की आती आवाजें जैसे जिंदा पानी फुसफुसाता है। चांदनी रात होती तो रुककर नदी का सौंदर्य देखता। इस काली अंधेरी रात में तो हाथ को हाथ सुझााई नहीं देता। पत्नी पता नहीं क्या तो बता रही थी कि फोन बंद पड़ गया। अब वह मेरे बहुत इंतजार में होगी; मैं संभलकर कार चलाते हुए आगे बढ़ रहा हूं।
पुल पार बरगद के नीचे कोई खड़ा है। कौन? होगा कोई। गाड़ी रोकना मुुझो किसी तरह उचित न लगा। मैं आगे बढ़ आया हूं लेकिन वह साया क्या दौड़कर आगे आ गया है या ये कोई और है? मैंने गाड़ी आगे बढ़ाई लेकिन थोड़ी आगे बढ़ाई और फिर रोक दी।
मैंने अपनी बगल की सीट का सामान उठाकर पिछली सीट पर फेंक दिया। आज स्कूल में जब इंस्पेक्शन को उच्च अधिकारी दल अचानक आ गया था तो क्लर्क ने प्रिंसिपल कक्ष में रखी कुछ अधूरी फाइलें उठाकर मेरी कार में रखवा दी थीं, जल्दी से। फाइलों के साथ अटेंडेंस रजिस्टर और कुछ दूसरे दस्तावेज भी चले आए हैं कार में। अब ये रजिस्टर घर में ही छूट जाए तो अगला पूरा सप्ताह खराब होगा। बेकार की परेशानी आन पड़ती है कभी-कभी तो।
मैंने सीट खाली कर उसका दरवाजा खोल दिया और उस साए को अंदर आने दिया।
‘आगे घाटी के मोड़ पे उतार देंगे तो बड़ी मेहरबानी।’
वह कह रहा है और मैं कनखियों से उसको जांच रहा हूं। कामकाजी-सा दिखता एक आदिवासी जो खासा परिचित जान पड़ता है शहर के जीवन से।
‘इतने अंधेरे में वहां क्या कर रहे थे आप?’
सहज बात करने को मैंने यों ही पूछा। इस बियाबान में एक से दो जन हो जाने के कारण अच्छा महसूस हो रहा है मुझो। मेरे प्रश्न के बदले वह प्रश्न ही लौटाता है ऐसे परिचित लहजे में जैसे मुझो रोज के देखने-जानने वालों में से हो,
‘आज आपको देर हो गई मास्टर जी ?’
‘हां, आज वह…आप जानते हैं मुझो ?’ कहते-कहते सोचने लगा क्या फिजूल पूछा, स्कूल मास्टरों को छोटी जगहों पर कौन नहीं जानता।
‘उस दिन आपने जिस बच्चे को अस्पताल पहुंचाया, वह मेरा बेटा जुगनू था।’
‘ओ अच्छा!’ उसकी कृतज्ञता स्वीकारता मैं उस दिन का घटनाक्रम याद करने लगा। स्कूल से शाम को टहलने निकला तो देखा कि टोले में लोग एक बच्चे को गर्दन तक मिट्टी और गोबर के ढेर में दबाए थे। वह मेरी कक्षा का विद्यार्थी था। मैंने जाकर मामला पता किया तो जाना कि उसे करंट लग गया था और भोले, अशिक्षित आदिवासी उसे मिट्टी, गोबर के ढेर में दबाए बैठे थे जब तक कि ओझाा-गुनिया जैसा कोई व्यक्ति नहीं आ जाता बच्चे का उपचार करने।
‘आप कहां थे तब?’
‘वहीं था।’
मैं चुपचाप गाड़ी चलाने लगा; दिमाग में वही हर दिन वाला तनाव है; घर पहुंचुंगा तो पत्नी फिर तबादले का राग छेड़ेगी।
‘तबादला आपका हो जाएगा मास्टरजी।’ मेरे बगल की सीट वाला कह रहा है।
‘हां, कभी न कभी तो हो ही जाएगा।’
‘मुझो लेकिन पक्का विश्वास है कि आज आप घर जाएंगे तो चि_ी रखी मिल जाएगी।’
उसकी बात पर मैं हंसा; इसके बच्चे की मदद कर दी तो सद्भावना में ये भोला आदिवासी कितनी शुभकामनाएं दे रहा है।
‘होना तो ऐसा ही चाहिए, मैं अपनी तीन सैलरी…।’
कहते-कहते मैं रह गया; एक शिक्षक होकर ऐसी बात ! किन पारिवारिक दबावों में मैंने रिश्वत के लिए रुपए अपने साले के दलाल दोस्त के हाथ में रखे, मेरा ईश्वर ही जानता है।
‘लेकिन मास्टरजी…’ वह कह रहा है,
‘जो सब मास्टरजी तबादला करवाके चले जाएंगे तो हमारे बच्चों को पढ़ाएगा कौन?’
इस प्रश्न का क्या जवाब दूं; जैसे मेरी ही आत्मा के शब्द दोहरा दिए हो बगलवाले ने।
‘अरे!’ कार के सामने सड़क पर कुछ मुर्दा-सा पड़ा दिख रहा है।’
‘नहीं। गाड़ी नहीं रोकिए।’
उसने इतनी ठंडी आवाज में कहा कि रोकते-रोकते भी मैंने कार नहीं रोकी; लेकिन एकदम से उत्तेजित हो उठा मैं।
‘क्या कोई एक्सीडेंट था? वह जिंदा होगा। रुकना चाहिए क्या?’ मैं पता नहीं क्यों सब कुछ उस अपरिचित साथी से पूछ रहा था।
‘वह कुछ नहीं था। आप चलते रहिए।’
‘क्या कोई जानवर था ?’
‘भरम था।’
मैं एकदम चुप हो गया।
घाटी के मोड़ तक पहुंचते ही उसने कहा,
‘बस, यहीं रोक दीजिए।’
‘इतने अंधेरे में यहां कहां जाएंगे?’
उस घुप्प निर्जन घाटी के बारे में मुझो चौकीदार की सुनाई दंतकथाएं याद आईं जिन्हें मैं लोककथाएं कहकर छोड़ देता रहा हूं।
मैं पूछे बिना न रह सका। वह सब ओर देखता, जैसे मेरे लिए चिंतित किसी अपने की तरह बोला,
‘आप निकल जाइए। एकदम सीधे अपनी राह। रु कएगा नहीं।’
मैंने हाइवे पर कार आगे बढ़ा दी। कहां जाएगा वह ऐसे गजब के अंधेरे में?
एक शनिवार सहकर्मी आनंदनाथ भी साथ था तो वह राह भर डरावनी किवदंतियां सुनाता रहा था। चाय पीने पुल के आगे एक गुमठी पर रुके तो बताने लगा कि यहां से प्रेत जाते हैं आगे उस पाताल घाटी जंगल में जहां भूतों का एक गांव है।
बड़े एहतियात से मैं फिर कार चलाता रहा। जब मेरे शहर की रोशनियां दिखने लगीं; तब जाकर दिल ने राहत महसूस की और घर पहुंचते-पहुंचते पिछला सब उतर गया दिमाग से।
‘ये चि_ियां आई हैं देख लीजिएं। मैं खाना लगाती हूं।’
मैं उलट-पुलटकर देखने लगा और सामने वह सरकारी लिफाफा है जिसे देखकर सांस लेना भूल गया। एकदम सही अंदाजा निकला मेरा; ये तो मेरे तबादले का आदेश-पत्र है। मैं सन्नाटे में खड़ा रह गया हूं; कोई इतनी सटीक भविष्यवाणी कैसे कर सकता है?
बाहर आकर मैं पिछली सीट से लैपटॉप का बैग उठा रहा हूं कि मेरी दृष्टि फाइलों पर पड़ी है। मैं अटेंडेंस रजिस्टर उठाकर अंदर आ गया। न जाने क्यों मेरा मन हुआ कि उस छात्र के पिता का नाम देखूं। क्या तो नाम बता रहा था वह अपने बच्चे का- जुगनू न?
पन्ना पलटता हूं…कक्षा तीसरी के छात्रों की सूची…यह जुगनू पारधी का नाम…तीन छात्र हैं इस नाम के। ये पहले के पिता- स्वर्गीय पर्वत पारधी, ये दूसरे के पिता -चीता पारधी, ये तीसरे के पिता का नाम- स्वर्गीय मेघराज पारधी।
अब मैं सोच रहा हूं कि अगर वह चीता पारधी था तो इतने अंधेरे में उसे पुल से घाटी तक किस काम से जाना था?
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