घुप्प अंधेरे में कल-कल की आती आवाजें जैसे जिंदा पानी फुसफुसाता है। चांदनी रात होती तो रुककर नदी का सौंदर्य देखता। इस काली अंधेरी रात में तो हाथ को हाथ सुझााई नहीं देता। पत्नी पता नहीं क्या तो बता रही थी कि फोन बंद पड़ गया। अब वह मेरे बहुत इंतजार में होगी; मैं संभलकर कार चलाते हुए आगे बढ़ रहा हूं।
‘आगे घाटी के मोड़ पे उतार देंगे तो बड़ी मेहरबानी।’
वह कह रहा है और मैं कनखियों से उसको जांच रहा हूं। कामकाजी-सा दिखता एक आदिवासी जो खासा परिचित जान पड़ता है शहर के जीवन से।
‘इतने अंधेरे में वहां क्या कर रहे थे आप?’
‘आज आपको देर हो गई मास्टर जी ?’
‘हां, आज वह…आप जानते हैं मुझो ?’ कहते-कहते सोचने लगा क्या फिजूल पूछा, स्कूल मास्टरों को छोटी जगहों पर कौन नहीं जानता।
‘उस दिन आपने जिस बच्चे को अस्पताल पहुंचाया, वह मेरा बेटा जुगनू था।’
‘ओ अच्छा!’ उसकी कृतज्ञता स्वीकारता मैं उस दिन का घटनाक्रम याद करने लगा। स्कूल से शाम को टहलने निकला तो देखा कि टोले में लोग एक बच्चे को गर्दन तक मिट्टी और गोबर के ढेर में दबाए थे। वह मेरी कक्षा का विद्यार्थी था। मैंने जाकर मामला पता किया तो जाना कि उसे करंट लग गया था और भोले, अशिक्षित आदिवासी उसे मिट्टी, गोबर के ढेर में दबाए बैठे थे जब तक कि ओझाा-गुनिया जैसा कोई व्यक्ति नहीं आ जाता बच्चे का उपचार करने।
‘आप कहां थे तब?’
‘वहीं था।’
‘तबादला आपका हो जाएगा मास्टरजी।’ मेरे बगल की सीट वाला कह रहा है।
‘हां, कभी न कभी तो हो ही जाएगा।’
‘मुझो लेकिन पक्का विश्वास है कि आज आप घर जाएंगे तो चि_ी रखी मिल जाएगी।’
उसकी बात पर मैं हंसा; इसके बच्चे की मदद कर दी तो सद्भावना में ये भोला आदिवासी कितनी शुभकामनाएं दे रहा है।
‘होना तो ऐसा ही चाहिए, मैं अपनी तीन सैलरी…।’
कहते-कहते मैं रह गया; एक शिक्षक होकर ऐसी बात ! किन पारिवारिक दबावों में मैंने रिश्वत के लिए रुपए अपने साले के दलाल दोस्त के हाथ में रखे, मेरा ईश्वर ही जानता है।
‘लेकिन मास्टरजी…’ वह कह रहा है,
‘जो सब मास्टरजी तबादला करवाके चले जाएंगे तो हमारे बच्चों को पढ़ाएगा कौन?’
इस प्रश्न का क्या जवाब दूं; जैसे मेरी ही आत्मा के शब्द दोहरा दिए हो बगलवाले ने।
‘अरे!’ कार के सामने सड़क पर कुछ मुर्दा-सा पड़ा दिख रहा है।’
‘नहीं। गाड़ी नहीं रोकिए।’
उसने इतनी ठंडी आवाज में कहा कि रोकते-रोकते भी मैंने कार नहीं रोकी; लेकिन एकदम से उत्तेजित हो उठा मैं।
‘क्या कोई एक्सीडेंट था? वह जिंदा होगा। रुकना चाहिए क्या?’ मैं पता नहीं क्यों सब कुछ उस अपरिचित साथी से पूछ रहा था।
‘वह कुछ नहीं था। आप चलते रहिए।’
‘क्या कोई जानवर था ?’
‘भरम था।’
मैं एकदम चुप हो गया।
घाटी के मोड़ तक पहुंचते ही उसने कहा,
‘बस, यहीं रोक दीजिए।’
‘इतने अंधेरे में यहां कहां जाएंगे?’
मैं पूछे बिना न रह सका। वह सब ओर देखता, जैसे मेरे लिए चिंतित किसी अपने की तरह बोला,
‘आप निकल जाइए। एकदम सीधे अपनी राह। रु कएगा नहीं।’
मैंने हाइवे पर कार आगे बढ़ा दी। कहां जाएगा वह ऐसे गजब के अंधेरे में?
एक शनिवार सहकर्मी आनंदनाथ भी साथ था तो वह राह भर डरावनी किवदंतियां सुनाता रहा था। चाय पीने पुल के आगे एक गुमठी पर रुके तो बताने लगा कि यहां से प्रेत जाते हैं आगे उस पाताल घाटी जंगल में जहां भूतों का एक गांव है।
‘ये चि_ियां आई हैं देख लीजिएं। मैं खाना लगाती हूं।’
पन्ना पलटता हूं…कक्षा तीसरी के छात्रों की सूची…यह जुगनू पारधी का नाम…तीन छात्र हैं इस नाम के। ये पहले के पिता- स्वर्गीय पर्वत पारधी, ये दूसरे के पिता -चीता पारधी, ये तीसरे के पिता का नाम- स्वर्गीय मेघराज पारधी।
अब मैं सोच रहा हूं कि अगर वह चीता पारधी था तो इतने अंधेरे में उसे पुल से घाटी तक किस काम से जाना था?