साठ पार करने के बाद अब जीवन में कौनसा बसंत लाने का सोच रही है तू योगिता…. पागल कहीं की। मन फिर से उड़ चला संगीत और नृत्य की उस दुनिया में जहां मैं थी। मीठे-मीठे संगीत की स्वरलहरियां थीं। ढोलक की थाप थी। सितार के स्वर थे। जीवन का एकमात्र ध्येय और सपना पूरा नहीं कर पाई मैं…..इसकी पीड़ा समंदर के अंदर छुपे ज्वालामुखी की तरह मुझो भीतर ही भीतर आंदोलित करती रहती थी।
आज एक बार फिर समयचक्र को पड़ोस में रहने वाली राखी उल्टा घूमा कर चली गई। आज मैं वहीं जस की तस खड़ी हूं जहां से कभी शुरू हुई थी जिंदगी की गिनती।
तब….हां तब मैं सिर्फ बीस साल की ही तो थी जब भरतनाट्यम में विशारद होकर स्टेज शो करने लगी थी। शहर में मेरे नाम की धूम थी। मैं अपनी टीम को खुद ट्रेनिंग देती। कॉस्टयूम खुद डिजाइन करती और बनवाती। भरतनाट्यम के साथ फिल्मी गानों का फ्यूजन बनाती। कड़ी मेहनत और समर्पण का नतीजा था कि बहुत कम समय में हमारी टीम देश भर में अपने कार्यक्रम देने लगी थी। देश के साथ- साथ विदेश में भी कार्यक्रम देने लगी थी।
मम्मी-पापा की मैं इकलौती लाडली बेटी थी। जीवन में भरपूर आजादी, विश्वास और प्रोत्साहन मिला था मुझो उनसे। जब मैं तीस के पार हो रही थी तो बार- बार मुझो शादी के लिए कहने लगे थे वे। बहुत समझााया उनको मंैने कि मुझो नहीं करनी शादी, नृत्य ही मेरा जीवन है। लेकिन उन्होंने भी साफ कह दिया तुम जिससे चाहो उससे शादी करो, हम अपनी पसंद तुम्हारे ऊपर नहीं लादेंगे पर अब तुम्हें घर तो बसाना ही होगा। उनका मानना था जीवनसाथी के कांधे से मजबूत कोई कंधा नहीं होता। पापा-मम्मी ने शादी के इतने सुनहरे सपने दिखाए कि आखिर पैंतीस की उम्र में मेरा ब्याह निकुंज के साथ हो गया। शादी की मेरी पहली शर्त थी मैं नृत्य किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ूंगी। स्टेज शो करती रहूंगी, जिसे उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया। शादी हो गई, पर न मेरा शहर बदला, न अपने काम में कोई बदलाव किया, न ही अपनी पहचान गंवाई। निकुंज के रूप में बड़ी सोच वाला पुरुष मेरी जिंदगी में आया था। दो साल पलक झापकते ही बीत गए। तब कहां मालूम था आगे की जिंदगी मुझो किसी ऐसे मोड़ पर पटकने वाली है कि संभलते-संभलते जिंदगी ही बीत जाएगी।
मेरी गोद गुलाबों से भरने वाली थी….मैं मां बनकर उस सुख को स्वयं में समाहित करने वाली थी जहां नरम हथेलियां मेरी अंगुली को पकड़कर चलने वाली थी। जब डॉक्टर ने मुझो मां बनने की सूचना दी मुझो लगा चांद-सूरज सब मेरी झाोली में आ गए हैं। मैं दो जुड़वां बेटियों की मां बन गई थी।
मेरी एक बेटी जिसका नाम मैंने रागिनी रखा था वो पूर्ण स्वस्थ थी पर दूसरी बेटी जिसका नाम मैंने सरगम रखा था वो अपंग थी। उसके पांवों में जान नहीं थी। मुझो जब बताया गया तो लगा मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई। जन्मजात इस अपंगता का कोई इलाज संभव नहीं था। सरगम के दोनों पांव बेहद कमजोर और कुछ बांकपन लिए थे। मैंने और निकुंज ने बहुत कोशिश की कि कोई इलाज संभव हो सके पर ऐसा नहीं हो पाया। ऐसे दिनों मे जब मुझो मेरी दोनों बेटियों की परवरिश करनी थी। रागिनी के साथ सरगम को जीवन में आने वाली चुनौतियों के लिए भी तैयार करना था। मैंने बरसों पहले के अपने सपनों को इस संदूक में बंद कर दिया था जो आज मेरे सामने खुला पड़ा था।
मेरे स्टेज शो बंद हो चुके थे। मेरे विधार्थी दूसरे गुरुओं की शरण में जा चुके थे। मैं डांस तो क्या फुर्सत के कुछ पलों के लिए भी तरस जाती थी। मेरी कमाई बंद हो गई थी पर खर्च चार गुना बढ़ गया था। दोनों बेटियों की रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ सरगम के लिए डॉक्टर, फिजियोथैरेपिस्ट, दवाइयां आदि के इंतजाम में मैंने और निकुज ने अपने आपको हमेशा अक्षम पाया। जमा पूंजी धीरे-धीरे खत्म हो रही थी। बाद में मेरे गहने और पी एफ आदि भी हमारी जरूरतों की भेंट चढ़ गए। दोनों बेटियां धीरे-धीरे बड़ी हो रही थीं और अपने आसमान को विस्तार दे रही थी। रागिनी हंसमुख और मिलनसार थी, वहीं सरगम अंर्तमुखी थी। रागिनी डॉक्टर बनना चाहती थी तो सरगम का मन सिविल सर्विसेज में जाने का था। सरगम की जिंदगी व्हील चेयर पर सिमटी हुई थी पर सपने रागिनी की तरह ही बड़े थे। दोनों ही पढ़ाई में बहुत अच्छी थी सो उनको मिलने वाली स्कॉलरशिप हमें कुछ राहत दे जाती। निकुंज अक्सर कहते- ‘लग रहा है आने वाले दो तीन सालों में दोनों बेटियों को अपनी मंजिल मिल जाएगी फिर हम बुढ़ा- बुढ्ढी अपनी दुनिया में मौज करेंगे पर वो कहां जानता थे कि उस मौज से पहले मौत उनका इंतजार कर रही थी। एक हर्टअटैक और सब कुछ खत्म….. जिसने जीवन के हर सुख-दुख में साथ निभाया वो अचानक मुझो छोड़कर वहां चले गए जहां मेरी कोई आवाज उन्हें सुनाई नहीं दे रही थी।
आज रागिनी एक किडनी स्पेशलिस्ट है और सरगम आइएएस ऑफिसर। दोनों इसी शहर में हंै पर दोनों की व्यस्तता मेरे अकेलेपन को और अकेला कर रही है। साठ की उम्र, ढ़ीली- ढ़ाली तबियत, अकेलेपन की खटास आजकल मेरे ऊपर ज्यादा ही हावी हो रही थी।
दिवाली नजदीक थी सो कुछ साफ-सफाई करने की सोची। आज घर में रखे बरसों पुराने बक्से को हाथ लगाया तो जाने कितनी यादें ताजा हो गईं। एक-एक मोमेंटो,बड़ी- बड़ी हस्तियों के साथ लिए गए एक-एक फोटोग्राफ मेरी स्मृतियों को ताजा कर रहे थे। ऐसे में कब मैनें अपने घुंघरूओं को पांवों में बांधा, डेक चलाया और नाचने लगी। मुझो होश ही नहीं था। मैं पसीने से लथपथ निढाल होकर सोफे पर गिर पड़ी थी।
जब होश आया तो अचानक लगा कोई बेल बजा रहा है। लपक कर दरवाजा खोला तो सामने पड़ोसन की बेटी रेखा खड़ी थी। कह रही थी – ‘आंटी क्या कमाल का डांस करती हैं आप। मैं तो आपको देखकर पलक झपकाना ही भूल गई थी। बरसों से आप यहां रहती हो योगिता आंटी पर अपने कभी बताया नहीं। मैं भी तो डांस सीख रही हूं। आपको पता है नेशनल लेवल पर अभी एक कम्पीटिशन है जिसमें किसी भी फिफ्टी प्लस पर्सन के साथ डांस करना है। मैं तो कितने दिनों से ढूंढ रही थी पर कोई मिला ही नहीं…. पर आज….आप मिल गए हो…. प्लीज, मना मत करना आंटी। मैं कल उस कम्पीटिशन का फॉर्म लेकर आती हूं।
वो अपनी ही रो में कहती जा रही थी और मैं बार-बार उस खिड़की की ओर देख रही थी जो रेखा के घर की तरफ खुल रही थी। क्या संदूक में बंद सपना अब बाहर निकलना चाहता है…..एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह मेरे सामने है, जिसका उत्तर पाने के लिए मैं कभी खुद को, कभी सामने पड़े संदूक को और कभी मुस्कुराते घुंघरूओं को देख रही हूं।