कुछ एेसी ही कहानी थी 141 रेजिमेंट के हवलदार संपत गिरी की, जिन्होंने अपनी टुकड़ी के साथ ना सिर्फ अदम्य साहस का परिचय दिया बल्कि विपरीत परिस्थितियों का भी डटकर मुकाबला किया। हमारे जांबाजों के इसी हौंसले को हम कारगिल विजय के उपलक्ष्य में सलाम करते हैं। हालांकि विजय दिवस 26 जुलाई को मनाया जाता है, लेकिन हमने उससे पहले अपने पाठकों के लिए विशेष रूप से संपत गिरी से बात कर जाना युद्ध के समय का हाल—
Fire And Move और Move And Fire की रणनीति
युद्ध में कारगिल से 7 किमी दूर हरका बहादुर ब्रिज पर मोर्चा संभाल रही 141 रेजिमेंट में मैं हवलदार था। हमारे एम्युनिशन डिपो में पाकिस्तानी गोले गिरने की वजह से आग लग गई और हमारा बारूद नष्ट हो गया। इसके बाद हमारे पास तोप से दागने के लिए गोले नहीं थे। कंट्रोल रूम से संपर्क करने पर हेलिकॉप्टर के द्वारा गोला बारूद भेजा जाता था, लेकिन डिपो नष्ट हो जाने की वजह से हम उसे संग्रहित नहीं कर सकते थे।
हम जहां तैनात थे वो ब्रिज महज तारों से बना और उन्हीं पर टिका पुल था। यहां हेलिकॉप्टर भी नहीं पहुंचता था। गोला बारूद लेह और लद्दाख में उतरता था, जहां से हमारे पास पहुंचता था। हम उन्हीं ट्रक से गोला डायरेक्ट तोप में डालकर दागते थे। 3 से 4 गोले दागने के बाद हमें वहां से भागना पड़ता था, क्योंकि दुश्मन को हमारी लोकेशन पता चल जाती थी और वो फिर वहीं गोले दागते थे। वहां समतल मैदान नहीं है। ऊबड़-खाबड़ जमीन पर दौडऩा पड़ता था। इस तरह हम फायर करके मूव करते थे और मूव के बाद अगला फायर। खास बात ये है कि गोला जब दागा जाता है उसका तापमान 27000 डिग्री सेल्सियस होता है।
लेकिन भारत माता के लिए ये सब मंजूर था और फिर जीत गए तो सारी मेहनत सफल हो गई। हमने पाकिस्तान की ओर से दागे गए गोलों के लोहे के टुकड़े भी संभाल कर रखे हैं, जो हमारी जीत की निशानी है। आज हम खुद को गौरन्वावित महसूस करते हैं कि भारत माता के लिए हम अपने जीवन का एक हिस्सा उन्हें अर्पण कर पाए। (जैसा कि हवलदार संपत गिरी ने दो साल पहले पत्रिका से बातचीत में बताया था)