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कविता- नकाबपोश

locationजयपुरPublished: Oct 21, 2020 12:52:53 pm

Submitted by:

Chand Sheikh

चारों तरफ दिख रहे हैं दुनिया में नकाब लगाए लोग

कविता- नकाबपोश

कविता- नकाबपोश

कविता

नकाबपोश

राकेश धर द्विवेदी

चारों तरफ दिख रहे हैं
दुनिया में नकाब लगाए लोग
आपसे मिलने, बतियाने से
हाथ मिलाने से घबराते हुए
जल्दी से किनारे से निकलकर
मुंह छिपा कर भाग जाते हुए
मैं सोचता हूं कि क्या वे वही
नकाबपोश हैं जो बरसों पहले दादी की कहानी में आए थे और तमाम
सामान चुराकर भाग गए थे
मैं सोच रहा हूं और धीरे से बुदबुदाता हूं नकाबपोश
इन्होंने चुरा लिया
नदियों से उनका पानी, गायों, भैंसों, बकरियों से उनके बच्चों के हिस्से का दूध, जंगलों से उनके हिस्से का पेड़, गौरैया, तितलियां
पहाड़ों से उनकी वादियों के मुस्कराते झारने, जंगल और पेड़,
चिरैया से घौंसला, हाथियों, शेरों से पतझाड़, बसंत, शरद, मानसून
पता नहीं क्या-क्या और तो और अपनों से बड़ापन
राजनेता बन चुरा लिया निरीह अपनो के आंखों में सजे सपने
और करते रहे फेयर एण्ड लवली
और फेयर एण्ड हैण्डसम का प्रचार
अपने असली चेहरों को छुपाए
लेकिन तुम्हारी चोरी की विभिन्न अपराधों की धाराओं को
प्रकृति ने तुम्हारे मुंह पर लिख दिया है
और तुम भाग रहे हो नकाब लगाए
अपने मुंह को छिपाए।
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गजल

सजा नहीं

यूसुफ रईस

क्या नहीं था जो उसे कहा नहीं
उसने मेरी बात को सुना नहीं।

जो मिला मुझो मेरा नसीब है
मुझाको उसकी जात से गिला नहीं।

बद्दुआ गरीब की जिसे लगी
वो ख़ुदा की मार से बचा नहीं।
अब अदालतों का ये निजाम है
अब किसी भी ज़ुर्म की सजा नहीं।

कल रहेगा वो नहीं जो आज है
कल तलक था आज वो बचा नहीं।

अम्न की जो बांटता है रोशनी
वो चराग अब तलक बुझाा नहीं।
इसलिए मेरा वजूद बच गया
मुश्किलों से मैं कभी डरा नहीं।

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