कालान्तर में यह किला जालौर के सोनगरा चौहानों और अलाउद्दीन खिलजी के अधिकार में रहा। साल 1538 में राव मालदेव ने इस दुर्ग पर अपना अधिकार कर इसकी सुरक्षा व्यवस्था को दृढ़ किया और परकोटे का निर्माण करवाया। मुगल आधिपत्य में आने के बाद अकबर ने इस किले को रावमालदेव से लेकर उसके पुत्र रायमल को दे दिया। राजमल के बेटे कल्याणसिंह (कल्ला) की वीरता एवं पराक्रम से सिवाना को गौरव एवं प्रसिद्धि प्राप्त हुई। अकबर के कल्ला राठौड़ से नाराज होने पर उसने जोधपुर के राजा उदयसिंह को सिवाना पर अधिकार करने भेजा। युद्ध में कल्ला राठौड़ वीरगति को प्राप्त हुआ तथा उसकी पत्नी हाड़ी रानी ने दुर्ग में ललनाओं के साथ जौहर का अनुष्ठान कर लिया।
कहा जाता है कि कल्याणसिंह सिर कटने के बाद भी लड़ते रहे। इस दुर्ग को अभेद्य कहा जाता है। इस दुर्ग में राजा कल्याणसिंह की दो समाधियां हैं। एक समाधि कल्याणसिंह के सिर की है तो दूसरी समाधि कल्याणसिंह के धड़ की है।
तालाब का नहीं दिखा तल
इस दुर्ग में पानी का एक तालाब भी है। ऐसा कहा जाता है कि दुर्ग में स्थित पानी का तालाब कभी भी खत्म नहीं हुआ। यहां कितने भी अकाल पड़े, लेकिन इस तालाब में पानी हमेशा मौजूद रहा है। शायद यही वजह रही कि इस तालाब की गहराई का आज तक ना तो अंदाजा लग पाया और ना ही कोई नाप पाया।
इस दुर्ग में पानी का एक तालाब भी है। ऐसा कहा जाता है कि दुर्ग में स्थित पानी का तालाब कभी भी खत्म नहीं हुआ। यहां कितने भी अकाल पड़े, लेकिन इस तालाब में पानी हमेशा मौजूद रहा है। शायद यही वजह रही कि इस तालाब की गहराई का आज तक ना तो अंदाजा लग पाया और ना ही कोई नाप पाया।