चंद लोग हैं माहिर जयपुर में हारमोनियम सुधारने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं और जो कर रहे हैं आज के डिजिटल युग में जहां संगीत भी डिजिटल हो रहा है वहां हारमोनियम के कम इस्तेमाल से अब काम भी कम हो रहा है। ऐसा नहीं है कि लोग सीखना नहीं चाहते, लेकिन इस काम में मेहनत और लगन के साथ संगीत के प्रति साधना जरूरी है।
सुरों से मिला सुकून ये काम बहुत बारीकी से होता है। हर एक स्वर को दूसरे से मिलाना पड़ता है। रात-दिन की संगीत साधना से ही महारथ हासिल होती है। बचपन से ही सीखने की ललक थी। हारमोनियम से निकलने वाले संगीत के स्वर सुकून देते थे। स्कूल से आते ही अपने दादा दूलीचंद और पिता बाबूलाल के साथ काम की बारीकी सीखने लग जाते थे।
पिता की छड़ी से लगता था डर हरिकिशन ने बताया कि पिता बाबूलाल की छड़ी से इतना डर लगता था कि हम कांपने लगते थे, लेकिन आज उनकी सीख ही मुझे इस काम में महारथ दिला सकी है। आज हारमोनियम को हाथ में लेते ही बता देते हैं कि किस स्वर में क्या खामी है।
काम को कलाकारों ने भी सराहा हरिकिशन चन्द्रमोहन भट्ट, बाबू खां, जहीर भाई और राजस्थान के कई कलाकारों के वाद्य यंत्रो को सुघार चूके हैं। उनका कहना है की वाद्यों की टयूनिगं तभी हो सकती है जब रिपेरिग करने वाला भी संगीत का जानकार हो। सादा व्यत्तित्व के धनी हरिकिशन की सफेद दाढ़ी व मूंछो से अनुभव साफ झलकता है। उनका कहना है की मुझे बेहद खुशी तब होती है जब ग्राहक मेरे काम से खुश होकर जाता है।
हारमोनियम के सुर संवरते हैं इनके हाथों से बचपन से ही हारमोनियम के सभी स्वरो को दिमाग में बैठा रखा है। हर स्वर को दूसरे स्वर के साथ मिलाना होता है। इसमे मशीन का कोई काम नहीं है, ना ही कोई औजार काम में आते हंै। पूरा काम हाथों से ही करते हैं। उम्र के इस पड़ाव मे अपनी कला के प्रति लोगो की बेरूखी देख कर दु:ख होता है। सब काम बारीकी से हाथों से ही होता है। हरिकिशन का कहना है कि इस काम में जितनी मेहनत होती है, उस हिसाब से उचित मेहनताना नहीं मिलता है। इस कारण से अपने बच्चों को इस काम से दूर रखा है। समय के साथ लोगों का रूझान कम हो रहा है, लिहाजा इस तरह के फैसले लेने पड़ रहे हैं।