‘नमस्कार मालकिन।’
‘अब मैं कहां तुम्हारी मालकिन? अब भी वहीं काम कर रहे हो या छोड़ दिया?’
‘आपने साहब को छोड़ दिया तो हमारा रुकना तो बहुत जरूरी हो गया था ना।’
‘साहब अब भी उतनी ही पीते हैं?’
‘नहीं ज्यादा पीते हैं।’ ‘रोकते क्यों नहीं।’
‘मैं कौन हूं, अपने ही नहीं रोक पाए।’
‘खाना तो अच्छे से खाते हैं ना।’
‘कहां? बहुत आग्रह करता हूं तो थोड़ा सा खाते हंै। सब्जी को बार बार ग्रास से इधर उधर कर छोड़ देते हैं।’
उसने उसके सब्जियों के थैले को टटोला और बोली ‘करेला नहीं लिया।’
‘मुझो नहीं बनाना आता करेला।’
‘कल मैं लाऊंगी साहब को मत बताना।’ दूसरे दिन नीरा करेले की सब्जी नाथू को हिदायत के साथ देकर गई
‘मैंने दी है उनको मत बताना।’
‘मालकिन आपके नए साहब तो नशा नहीं करते।’ नाथू ने चलते चलते पूछ लिया।
‘नहीं।’ नीरा ने कह तो दिया लेकिन दिल ने प्रतिकार किया ‘नशा तो पैसे का, पद का भी तो होता है। क्यों झाूठ बोला?’
उसे रात भर नींद नहीं आई थी। शाम को सब्जी मंडी सजने से पहले ही वह पहुंच कर व्यग्रता से नाथू का इंतजार कर रही थी। आखिरकार नाथू दिख ही गया
‘हां खाए।’
‘कुछ पूछा तो नहीं।’ ‘नहीं।’
‘कुछ कहा भी नहीं सब्जी के बारे में?’
‘नहीं।’ सुनकर नीरा उदास हो गई। नाथू ने आगे कहा-‘बस आंखें झरती रहीं पूरे समय। उन्होंने दुबारा सब्जी लेने के लिए कई बरसों बाद कटोरी आगे बढ़ाई।’