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लघुकथा – चश्मे की कील

locationजयपुरPublished: Feb 19, 2021 12:22:36 pm

Submitted by:

Chand Sheikh

लेकिन पापा मैं गाड़ी से बहुत आगे निकल आई हूं। अब लौटना मुश्किल है।गिरधर की आंखें नम हो गईं। पौंछने के लिए हाथ गया तो आलपिन की नोंक ऊंगली में चुभ गई।

लघुकथा - चश्मे की कील

लघुकथा – चश्मे की कील

रोहिताश्व शर्मा

गिरधर के चश्मे के फ्रेम के दाईं ओर के कब्जे की चूडिय़ां घिस गई थी। वे बार-बार पेच बदलवाते, बार बार वह गिर जाता और बगल की डंडी अलग हो जाती। पत्नी सुमन ने कई बार उन्हें नया चश्मा लेने के लिए कहा लेकिन वे कहते
‘बेटी कॉलेज में पढऩे लगी है। अब पैसे मेरे पर नहीं बेटी पर खर्च करने की जरूरत है फिर देखना ये मेरा नाम कैसे रोशन करती है।’
‘ये लो मेरे पांच हजार ले जाओ। पुराने नेगों से मिले मैंने जोड़ रखे हैं। अब ग्लास वाला चश्मा नहीं प्रोग्रेसिव चश्मा लाना।’ बेटी ऋतु भी तैयार होकर आ गई थी। सुमन ने कहा-‘ऋतु कॉलेज के लिए इतना बड़ा बैग?’
‘बहुत असाइनमेंट तैयार किए हैं मां।’ ‘आप आफिस जाते समय स्कूटर पर इसे कॉलेज छोड़ते जाना।’
‘नहीं । मैं बस से चली जाऊंगी। कोई पापा के पीछे बैठकर कॉलेज जाता है।’ कह कर ऋतु बाहर निकल गई।
गिरधर भी टूटा चश्मा जेब में डालकर आंखों को दूरबीन सी बनाकर स्कूटर पर रवाना हो गए। शाम को गेट पर हॉर्न की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी।
बाहर आई तो देखकर दंग रह गई। गिरधर नई स्कूटी पर सवार थे।
‘ये किसकी है?’
‘सरप्राइज लाया हूं ऋतु के लिए। तुम्हारे दिए पैसे से डाउन पेमेंट कर दिया बाकी किश्तों में चुका दूंगा।’
‘और तुम्हारे चश्मे का क्या हुआ?’
उन्होंने कब्जे में आलपिन डाल कर मरोड़ ली थी। दोनों बेसब्री से बेटी का इंतजार करने लगे। लेकिन ऋतु नहीं आई। सुमन ने बेटी को फोन लगाया।
‘कहां है तू?’ ‘मां मैं वैभव के साथ आगरा आ गई हूं।’ ‘वैभव जो हमारे किराए पर रहता था व गलत हरकतों के कारण मैंने मकान खाली करवाया था।’
‘बेटा तू अभी नासमझा है।’
‘पापा मैं बालिग हो गई हूं।’
‘बालिग होने और समझादार होने में फर्क है। मैंने तेरे लिए क्या सपने देखे थे।’
‘लेकिन पापा मैं गाड़ी से बहुत आगे निकल आई हूं। अब लौटना मुश्किल है।’
गिरधर की आंखें नम हो गईं। पौंछने के लिए हाथ गया तो आलपिन की नोंक ऊंगली में चुभ गई।
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