थोड़ी ही दूरी पर मुझो सिर्फ मटर से भरा एक ठेला दिखाई दिया। पास जाकर देखा तो मटर एकदम ताजा थे। पूरी फली दानों से भरी हुई थी। वहीं से खरीदने का मन बना कर मैंने ठेलेवाले को तीन किलो मटर तौलने के लिए कहा। मैंने देखा वह मटर के ढेर में से कुछ फलियां निकाल ठेले पर रखे एक बड़े पॉलीथिन में रखता जा रहा था।
मेरे हाथ में सब्जी का भारी झाोला था इसलिए मैंने उससे कहा, ‘पहले मेरा सामान तौल दीजिए भैया, फिर दूसरे ग्राहक के लिए निकालिए।’
उसने कहा, ‘बहन जी, मैं तो रोज जब भी खाली होता हूं, पूरे माल में से ऐसी पिचकी फलियां चुनकर अलग कर देता हूं, आखिर ग्राहक पूरे पैसे देता है तो उसे यह बिना दाने का मटर कैसे दिया जा सकता है?’ मैंने देखा उस ढेर सारे बिना दानों की मटर की फलियां पड़ी हुई थीं। मैं उससे पूछ बैठी ‘ऐसी कितनी फलियां निकलती हंै और तुम इनका क्या करते हो?’ उसने सहजता से जवाब दिया ‘हर दिन लगभग डेढ़- दो किलो हो जाती है, बस घर जाते-जाते रोड पर घूम रही गौमाता को खिला देता हूं।’
एक छोटे से विक्रेता का स्वयं नुकसान उठा कर ग्राहकों के फायदे का विचार करना, अलग से निकाले मटर बाजार में न फेंक कर गाय को खिलाना और इतनी सहजता और सरलता से उसे ऐसा करते देख मेरे मन में उसके प्रति सम्मान भाव जाग उठा। मैंने उसकी प्रशंसा की और धन्यवाद दिया तो, सकुचाकर उसने हाथ जोड़ लिए। घर लौटते हुए मैं सोच रही थी कि आज हर तरफ बेईमानी और धोखाधड़ी का बोलबाला है। नामी गिरामी कंपनियां भी ग्राहकों के हितों की जगह अपना फायदा ही देखती हैं। इसके विपरीत इतने छोटे से व्यवसाय में ईमानदार होना कितना अनमोल है। पूरा दिन मन एक आत्मिक आनंद से सराबोर था,क्योंकि मैंने ईमानदारी का एक अनोखा रंग जो देखा था।