पिता अपनी बेटी के भावी ससुराल में बैठा मन ही मन मंथन कर ही रहा होता है तभी उसका भावी समधी उसके मंथन पर विराम लगाता बोला-‘अरे, समधी जी किसी भी बात की चिंता मत कीजिए, मैंने आप को जिन-जिन बातों का वादा किया है उन पर मैं एक दम खरा उतरुंगा, कोई भी संशय मत रखिएगा। फिर भी मैं अपना वादा दोहरा देता हूं, सुनिए, मैं शादी में फिजूल खर्च न करुंगा और न ही आप से करने को कहूंगा !मैं बाराती चुनिंदा ही लाऊंगा! मैं दहेज के रूप में सिर्फ हमारी बहू रानी ने जो सुहाग का जोड़ा पहना होगा बस उसी रूप में चाहिए और कुछ भी नहीं ! हमारी बहू पढ़ी-लिखी है, संस्कारी परिवार से भला और क्या चाहिए।
मैं तो यही चाहता हूं कि हमारा मान-सम्मान समय के साथ-साथ और समृद्ध होता रहे! मगर अब अपनी बात बताइए कि आपके मन में क्या संशय चल रहा है। जो भी मन की आशंका हो खुल कर कहिए, झिाझाकिए मत। हमारे रिश्तों में कोई बनावटीपन या आडंबर नहीं होना चाहिए, जी आप बोलिए।
‘समधी जी! क्षमा सहित आप के समक्ष अपनी बात रखना चाहता हूं कि मेरे मन के भीतर रह-रह कर एक मंथन चल रहा है लेकिन निष्कर्ष नहीं निकाल पा रहा हूं?’ लड़की का पिता झिाझाकता हुआ बोला।
‘अरे,समधी जी ये झिाझाक छोडि़ए। आप भी अब घर के सदस्य हैं, बोलिए ना क्या मंथन चल रहा है,पूरा कीजिए अपना प्रश्न?’
लड़के के पिता के चेहरे का रंग तब फीका पड़ गया जब प्रश्न पूरा सुना जो चारो भाइयों के आपसी रिश्तों को बयां कर रहा था।
‘दरअसल, मैं ये सोच रहा था कि आप के दिवंगत पूज्य पिता जी की इतनी बड़ी हवेली आप चारों भाइयों के बीच सिर्फ कमरों तक ही क्यों सिमट कर रह गई! जगह-जगह टूटा आंगन, टूटी चौखट क्या किसी के भी बंटवारे की सीमा में नहीं आते!’