जयपुर

लघुकथा-अपरिमित सुख

क्षणभर पूर्व जिस छात्रा की डबडबाई आंखें बेबसी को प्रकट कर रही थीं, उन्हीं आंखों में एक क्षण बाद ज्ञान का प्रकाश देख प्राचार्य को अपरिमित सुख का भान हो रहा था।

जयपुरOct 21, 2020 / 12:07 pm

Chand Sheikh

लघुकथा-अपरिमित सुख

आनन्द प्रकाश त्रिपाठी ‘रत्नेश’
अपरिमित सुख

जैसे गणित के प्राध्यापक ने आकर प्राचार्य से कहा- सर! एक छात्रा अपने अभिभावक के साथ बी.एससी में प्रवेश के लिए आई है तो प्राचार्य ने तत्काल चेम्बर में भेजने का आदेश दिया। अन्दर प्रवेश कर छात्रा ने परिचय देते हुए कहा- सर, मैं नीलिमा और आप मेरे पिता श्री रामावतार हैं।
पिता रामावतार ने प्राचार्य महोदय का अभिवादन करते हुए कहा- सर, मेरी बेटी आगे पढऩा चाहती है। मैं मजदूर बाप इसे पढ़ाने की हिम्मत जुटा नहीं पा रहा हूं। मजदूरी करके किसी प्रकार परिवार पाल रहा हूं। यह मेरी बच्ची कई दिनों से बी.एससी में प्रवेश की रट लगाए खाना-पीना छोड़ रखा है। अब मजबूरन इसकी मां ने अपने गहने लाकर मेरे पास रख दिए कि इसे गिरवी रखकर मेरी बच्ची को पढ़ाओ।
पत्नी की मजबूरी और बेटी की पीड़ा से आहत अभागा मैं पत्नी के गहने गिरवी रखकर यह पैसा लाया हूूं। आपके गणित प्राध्यापक एक हजार कम बता रहे हैं। अब मैं एक हजार कहां से लाऊं। यह कहते हुए उसका दर्द जहां उसके चेहरे पर साफ दिखाई दे रहा था, वहीं नीलिमा के आंखों के बहते झारने उसकी बेबसी का इजहार कर रहे थे।
सामने के दृश्य से स्तब्ध और अवाक् प्राचार्य भी कुछ समझा नहीं पा रहे थे कि वह क्या करें? अचानक पर्स पर उनका हाथ गया और एक हजार रुपए निकालकर गणित के प्राध्यापक से बोले-े नीलिमा! बहुत होनहार छात्रा प्रतीत होती है।
यह इस कॉलेज की शान साबित होगी। बकाया इसके पैसे मेरे से लेकर इसे प्रवेश दे दीजिए। क्षणभर पूर्व जिस छात्रा की डबडबाई आंखें बेबसी को प्रकट कर रही थीं, उन्हीं आंखों में एक क्षण बाद ज्ञान का प्रकाश देख प्राचार्य को अपरिमित सुख का भान हो रहा था।
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