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लघुकथा लेखन-चयनित लघुकथाएं

locationजयपुरPublished: May 07, 2022 04:51:26 pm

Submitted by:

Chand Sheikh

चयनित लघुकथाएं

लघुकथा लेखन-चयनित लघुकथाएं

लघुकथा लेखन-चयनित लघुकथाएं

महंगाई भत्ता
वर्षा शर्मा

रविवार का दिन था। बाजार से अपनी दोस्त मीना के साथ शॉपिंग कर लौट रही रोमा ने हाथ देकर साइकिल रिक्शा को रोका और दोनों उसमे बैठ गई। बैठते से ही चालू हो गया बातों का सिलसिला। रोमा ने अपना दुखड़ा रोते हुए कहा – ये आफिस वाले इतना काम करवाते हैं पर उसके हिसाब से तनख्वाह नहीं देते। उसकी बात में सहमति मिलाते हुए मीना बोली – और नहीं तो क्या, हम पूरे महीने इतनी मेहनत करते है लेकिन महीने के अंत मे मिलने वाली सेलरी उस मेहनत के आगे कम लगती है। और वैसे भी आजकल महंगाई कितनी बढ़ गई है, इन्हें महंगाई भत्ते मे भी बढोतरी करनी ही चाहिए।
रोमा ने जोर से सिर हिलाकर अपनी मजबूत सहमति दर्ज कराई। लो दोनों की मंजिल भी आ गई। है.. भईया ३0 रुपए! बाजार से यहां तक के तो २0 रुपए ही लगते हंै ना? माना पेट्रोल की कीमतों में बढ़ोतरी हुई है परंतु आपका रिक्शा तो वैसे भी बिना पेट्रोल ही चलता है। ये कहते हुए दोनों रिक्शे वाले के हाथ मे २0 रुपये थमा वहां से चली गई।
रिक्शे वाला २0 रुपए हाथ मे थामे सोच रहा था कि अगर अभी कोई केब वाला होता तब ये लोग ऐसे मोल भाव नहीं करते परंतु हम छोटे रिक्शे वालो की मेहनत की क्या कीमत है ये अपने हिसाब से तय कर लेते है। और माना मेरा रिक्शा पेट्रोल से नहीं चलता लेकिन समय के साथ महंगाई हमारे लिए भी तो बढ़ रही है। क्या इस हिसाब से मेरा महंगाई भत्ता भी नहीं बढऩा चाहिए!
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कथनी-करनी में अंतर
शैलेष कुमार शर्मा ‘अनन्त’

‘बड़ी देर कर दी! कहां रह गई थी?’ रिक्शा में बैठते ही मोना ने निधि से पूछा।
‘चलो भैया, गांधी सर्कल ले लो।’ रिक्शा चालक को निर्देशित कर मोना से मुखातिब हुई निधि ने जवाब दिया- ‘क्या करती बाबा! आधा घण्टा चिलचिलाती धूप में खड़े रहने के बाद रिक्शा मिला।
‘तुम्हारी स्पीच तैयार है ना। सुना है, मंत्रीजी श्रमिक कल्याण की योजनाओं में काफी रूचि लेते हैं। सब ठीक रहा तो हमारे एनजीओ के लिए सरकारी सब्सिडी के दरवाजे खुल जाएंगे।’ कहते हुए निधि ने मोना की पीठ थपथपाई।
‘हमारे एनजीओ का प्रयास है कि मजदूर का पसीना सूखने से पहले उसे वाजिब मजदूरी मिल जानी चाहिए। यही मेरी स्पीच की थीम भी है। वैसे भी हमारी कथनी-करनी में कोई अंतर नहीं है, इसलिए हम बाजी मार ही लेंगे… डोन्ट वरी।’ मोना ने पूरे आत्मविश्वास से अपनी बात रखी।
रिक्शा को पैडल मारता बाबूलाल यह सुन भावुक हो बोल पड़ा- ‘मेमसाब एक आप हैं जो मजदूरन के हक-हुकूक की बात करत रही, वरना कैई लोग पूरी मजूरी तय करबै के बाद भी आधी थमा के चलत बनत। लो, गांधी सर्कल भी आ गवा।’ कहकर बाबूलाल रिक्शा रोक गमछे से पसीना पोंछने लगा।
‘सही कह रहे हो भैया…’ बाबूलाल की बात औपचारिकतापूर्वक सराहते हुए निधि ने बीस रुपए का नोट उसकी ओर बढ़ाया। ‘ई का मेमसाब, भाड़ा तो पचास रुपया तय हुआ रहिन!’ बाबूलाल ने नोट लेने से मना करते हुए कहा।
यह देख निधि से बीस का नोट लेकर उसके साथ अपने पर्स से दस रुपए का नोट निकाल बाबूलाल की हथेली पर रख मोना बोली- ‘इतनी दूरी का भाड़ा यही है, बहस मत करो।’ निधि का हाथ खींचते हुए मोना बोली, ‘इसके मुंह मत लगो, इन लोगों की तो आदत है मनचाही मजदूरी मांगना और बहस करना।’
बाबूलाल अवाक् खड़ा मोना और निधि को जाते देख सोचने लगा, ‘क्या ये वही महिलाएं हैं, जो कुछ देर पहले तक मजदूरों की हिमायती बन रही थीं।’ खैर… पसीना बहाकर कमाई ‘मजूरी’ को खींसे में खोंस बाबूलाल ने अगली ‘मजूरी’ की तलाश में पैडल मार रिक्शा आगे बढ़ाया। शायद उसे कथनी-करनी में अंतर समझा आ चुका था।
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रफ एंड टफ
देवव्रत सिंह शेखावत

‘अरे क्या बताऊं यार रीना, ये ध्रुव का तो वजन ही कम नहीं हो रहा..।’ साइकिल-रिक्शा मे बैठी सविता ने अपनी सहेली से कहा।
‘..सारा दिन लैपटॉप-मोबाइल लेकर बैठा रहता है, कुछ कहो तो कहता है, ‘मम्मी मैं तो बॉडी बनाऊंगा।’ पता नहीं कौन-सा जिम जॉइन किया है, जहां एसी में कसरत कराते हैं! बताओ! फास्ट फूड खिला दो बस। दाल, हरी-सब्जी तो गले नहीं उतरती, रोज खाना झाूठा छोड़ देता है…।’
चढ़ाई पर रिक्शा की गति कुछ धीमी हुई तो सविता ने रिक्शा चलाते लड़के से चिढ़ते हुए कहा ‘ओ भैया, तुमसे नहीं चला जा रहा हो तो रहने दो, हम दूसरा रिक्शा कर लेंगे।’
पसीने से तर, बेहोशी-सी अवस्था मे साइकिल चलाता, हांफता 17 वर्षीय राजू अचानक पुन: होश में आया। पेडल पर खड़े हो पूरा वजन डालने पर भी उससे पेडल घुमाए न घूम रहा था। उसे याद आया कि वह कल दोपहर से भूखा है। कल रात का सारा खाना उसने अपनी छोटी बहन को खिला दिया था। ‘काल मूँ 20 चक्कर काटूं, पछे आंपा दोई धाप-अन्न रोटी खांवा।’ बहन से, और खुद से, यह वादा कर वह खुद खाली पेट ही सो गया। परंतु दोपहर आते-आते उसका सिर चकराने लगा था। पेट पीठ में धंसा जाता था और पांव उठाए न उठते थे।
लेकिन जैसे ही सविता ने दूसरी रिक्शा करने की बात कही तो मानो बुझाते अलाव पर केरोसिन छिड़क दिया हो। भूख से बिलखती बहन की स्मृति राजू की आंखों के आगे तैर गई। उसकी थकान, कमजोरी, भूख, धूप सब अपने आप भाग गई। आवेश और उन्माद में चलते उसके पैर अब पेडल पर वज्र समान पडऩे लगे। चंद ही मिनटों मे जब वे गंतव्य पर पहुंच गए, तो राजू को 20 रुपए थमाते हुए रीना ने कहा -‘बच्चों को तो इसकी तरह होना चाहिए, मेहनती और रफ एंड टफ।’
‘और नहीं तो क्या, असली सेहत तो इन्ही की है…’ – कहते हुए सविता ने शुगर-फ्री केक का बॉक्स उठाया और अपने घर मे दाखिल हो गई। राजू बचे हुए 15 चक्कर पूरे करने के लिए रिक्शा मोडऩे लगा।
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मानसिकता
रमेशचन्द्र शर्मा

वे दो सहेलियां राजेश के रिक्शा में सवार हुई सदर बाजार जाने के लिए। राजेश रिक्शा चलाने लगा और वे दोनों बतियाने लगीं। उनकी बातचीत का विषय था घरेलू नौकर। उनमें से एक ने दूसरी से कहा, ‘मैं तो इन गरीब गुरबो पर बिल्कुल भरोसा नहीं करती। इनकी नीयत का क्या भरोसा।’
दूसरी ने पहली से सहमति जताते हुए कहा,’मैं भी इन पर बिल्कुल भरोसा नहीं करती।’
उनकी बातचीत चल ही रही थी कि सदर बाजार आ गया। वे दोनों तुरत फुरत उतरी और चल दीं। राजेश ने कोई घण्टे भर बाद रिक्शा रोका तो देखा, पीछे एक लेडीज पर्स पड़ा हुआ था। वह समझा गया कि यह उन्ही में से किसी का था। उसने बैग खोला। उसमें से मिले एक कार्ड से पता देखा और पते वाले घर पहुंच कर घण्टी बजाई। दरवाजा उसी महिला ने खोला जो रिक्शे में बैठी थी। राजेश ने उसका पर्स उसे लौटाया। उस महिला ने लपक कर सबसे पहले पर्स को खोला और सरसरी निगाहों से बेग की पड़ताल कर तसल्ली की सांस ली और फिर बड़े मधुर स्वर में बोली, ‘बैठो भय्या, पानी तो पी लो।’
‘नहीं मेडम, मैं चलू,रिक्शे में सवारी बैठी है।’ राजेश ने कहा और चल दिया।

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संवेदनशीलता
शशि बोलिया

कृति और रश्मि दोनों पड़ोसिनें सुबह जल्दी ही कुछ खरीदारी करने निकल गई थीं कि गर्मी है जल्दी जाएंगे तो धूप बढऩे से पहले लौट आएंगे। लेकिन खरीदारी मे समय अधिक लग गया और सूर्यदेवता अपने पूर्ण रौद्र रूप मे भभक रहे थे। कुछ प्रतीक्षा के बाद एक साइकिल रिक्शा वाला उनके पास आकर रुका। ‘बहिन जी कहां जाना है?’ दोंनों ने अचकचाकर रिक्शे वाले को देखा..’सेक्टर आठ, नई कॉलोनी’
फिर बिना मोलभाव किए ही रिक्शे मे सवार हो गईं।
पसीने से तरबतर वो कृषकाय रिक्शेवाला अपने से तीन गुना भार को खींच कर उनके गन्तव्य तक ले गया। कृति का घर पहले आता था अत: वो उतर गई । रश्मि ने घर पहुंचने पर छुट्टे पैसे नहीं होने के कारण लाने के लिए अन्दर गई। लोटते हुए पैसे के साथ ठंडे पानी की बोतल भी लेती आई। रिक्शेवाले को बरामदे मे कुछ देर पंखे के नीचे बैठ कर पानी पीने का आग्रह किया। वह सकुचाते हुए बैठ गया। रश्मि को वह बहुत लाचार व दुखी प्रतीत हुआ। पूछने पर हिचकिचाते हुए उसने बताया कि कोरोना की दूसरी लहर उसके बेटे व बहू दोनों को लील गई। दो छोटे पोते -पोती के लालन-पालन का भार उस पर आ पड़ा.है। इस उम्र मे कहीं नौकरी भी नहीं मिल पा रही है। अत: मजबूरी मे यही काम कर रहा है।
सुनकर रश्मि का हृदय द्रवित हो गया। उसने कहा-भैया! हमारी कपड़ों की मिल है। कल रविवार है ,मेरे पति घर पर ही मिलेंगे। आप आना, मैं उनसे कहूंगी, वह हमारी मिल मे आपके योग्य नौकरी अवश्य देंगें।
रिक्शेवाला रश्मि को दुआएं देकर सोचता हुआ चला गया कि कोरोना ने बहुत घर बर्बाद कर दिए लेकिन इंसानों को संवेदनशील भी बना गया।.
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कीमत
शैलेन्द्र सरस्वती

‘धीरज रखो सीमा, भगवान कुछ न कुछ बंदोबस्त जरूर करेगा!’ स्वाति अपनी बड़ी बहन को धीरज बंधा रही थी। दोनों बहनें साइकिल रिक्शा से सीटी हॉस्पिटल जा रही थी, जहां सीमा का पति विनोद भर्ती था। विनोद की किडनी खराब हो गई थी।
‘पता नहीं अब क्या होगा! विनोद के परिवार वालों ने तो हमारी लव मैरिज के चलते कब का मुंह मोड़ लिया था और हमारे परिवार में भी तुम्हारे अलावा मेरा कोई नहीं है। कुदरत का मजाक देखो कि न मेरी और न तुम्हारी किडनी विनोद की किडनी से मैच खा रही है।….. ‘किडनी डोनर’ भी एक किडनी के लाखों रुपए मांग रहे हैं?।… अब कहां से इतने रुपयों का बंदोबस्त करूं?’ कहते हुए सीमा फफक-फफक कर रो पड़ी।
रिक्शावाला सारे रास्ते से दोनों बहनों की बातें सुन रहा था। उसे याद आया कि दो साल पहले गांव में आई बाढ़ में उसके अम्मा -बाबूजी बह गए थे। फिर कोरोना से उसकी पत्नी और बच्चे भी चल बसे। सोचते-सोचते रिक्शे वाले की आंखें भर आईं। सच में, दुख सभी को कैसे-कैसे रूप धर के घेरता है!
‘अगर आप चाहें तो मैं आपके पति को अपनी किडनी देने को तैयार हूं।’ हॉस्पिटल आने पर सीमा, स्वाति ज्योंहि रिक्शे से उतर कर खड़ी हुई तो रिक्शेवाले ने उनसे कहा।
यह सुनकर सीमा-स्वाति कुछ पल को तो हैरान रह गई।’कितने रुपए लोगे भैया?’ सीमा ने पूछा। ‘आपका दुख दूर हो जाए तो मैं समझाूंगा, मुझो मेरे सुख की कीमत मिल गई’, रिक्शे वाले ने हाथ जोड़ते हुए गंभीरता से कहा और सीमा तथा स्वाति के पीछे-पीछे हॉस्पिटल की तरफ चल दिया।
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उसने हमारी सोच बदल दी
आशीष शेषमा

सोमवार को शॉपिंग के बाद चिलचिलाती धूप में पूरा सामान ना मिलने का दिल में गुस्सा लिए मेट्रो स्टेशन के लिए रिक्शा में मैं और मंजुला सवार होकर चल दिए।
कैब ना मिलने का गुस्सा और जयपुर की धूप की आंच से आहत मंजुला ने रिक्शेवाले की धीमी चाल पर अपना गुस्सा उतार दिया।
गर्मी से पस्त मंजुला ने अपने रौद्र रूप में आकर जो जी में आया रिक्शे वाले को कह डाला। मैं भी मन ही मन चुप रहकर मंजुला का समर्थन करती रही तब तक मेट्रो स्टेशन आ चुका था।
मंैने बिना मांगे 100 रुपए आगे कर दिए, तो विनम्र और धीमी आवाज में इक्कीस वर्ष का दुबला पतला रिक्शेवाला भरे गले से बोल पड़ा,’दीदी 50 ही बनता है।’
हतप्रभ मैं इस ईमानदारी का कारण जानने को विवश बोल पड़ी ‘क्यों लूटने का मन नहीं है?’
यह मेरे लिए रिक्शे वालों की कार्य संस्कृति का मेरी सोच से परे का उदाहरण था। रिक्शे वाला 50 रुपए लौटाकर बोला,’इतना ही लूंगा दीदी। खुशी से गुजर बसर चलता है और जीवन में ईश्वर से क्या चाहिए।
रिक्शेवाले की मुस्कान से खुशी और संतोष तेज धूप में पसीने से चमक रहे थे।
आगे बढ़ता रिक्शेवाला अपनी विन्मृता से हमारे तेवर कुचल गया। अंदर से आहत थी मन ही मन पछता रही थी मैं और मंजुला।
दोनों उसी धूप की आंच में एक दूसरे की मरी संवेदनाओ से लाल चेहरे एकटक देखे जा रही थी मानो आज काटो तो दोनों सहेलियों मेें खून नहीं।
हमारे क्रोध और शरीर का भार कितने अदब से खीच रहा था रिक्शेवाला, असल मे वह हमें नहीं अपना जीवन खींच रहा था।
आज रिक्शेवाले का जीवट और इमानदारी देखकर मेरा और मंजुला का नजरिया घर पहुंचते- पहुंचते बिल्कुल बदल चुका था।
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