‘वाह मम्मी, आपका भी जवाब नहीं है। जब तक दादी जी रही थी तब तक तो आपको उनसे कुछ न कुछ शिकायत ही रही। ज्यादा -तर बचा-खुचा खाना ही उन्हें नसीब हुआ और आज जब वे इस दुनिया में नहीं है तो उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए उनके मनपसंद के पकवान बनाए जा रहे हैं ताकि उनका आशीर्वाद हमारे ऊपर बना रहे।’
प्रीति ने तल्खी भरे स्वर में कहा तो मंजू निरुत्तर हो गई। उसकी अपनी बेटी ने उसे आईना जो दिखा दिया था।
चादर देखकर कोरोना से पीडि़त दो आदमी एक ही निजी अस्पताल में भर्ती हुए। पूछताछ कर एक का नाम दर्ज किया गया ‘लाख’ और दूसरे का नाम ‘करोड़’।
दोनों से पूछा गया, ‘क्या मेडिकल बीमा करवा रखा है?’ दोनों का उत्तर तो हां था लेकिन स्वर-शक्ति में अंतर था।
कुछ दिनों के बाद…
लाख नहीं रहा…
और करोड़ के कुछ लाख नहीं रहे।