2014 में आई न्यूयॉर्क स्टेट अटॉर्नी जनरल एरिक टी. शेंडर्मन की रिपोर्ट ‘अनसीन थ्रेट’ के अनुसार ‘डैड स्किन’ या शरीर से मृत त्वचा निकालने के एक तरीके के रूप में माइक्रोबीड्स का पैटेंट 1972 में हो चुका था लेकिन कंज्यूमर प्रॉडक्ट्स में इनका इस्तेमाल न के बराबर हो रहा था और इस तरह यह प्लास्टिक प्रदूषण की वजह भी नहीं थे। 1990 के दशक से कंज्यूमर प्रोडक्ट्स बनाने वालों ने बारीक पिसा दलिया, बादाम और सी-सॉल्ट जैसे प्राकृतिक बीड्स की जगह इन प्लास्टिक माइक्रोबीड्स का इस्तेमाल शुरू कर दिया और दुनिया भर में इनकी भरमार होती चली गई।
दुनिया भर के सैकड़ों पर्सनल केयर प्रोडक्ट्स में ‘एक्सफॉलिएट’ के रूप में शामिल किए जाने वाले माइक्रोबीड्स, नहाने-मुंह धोने या कुल्ला करने के बाद सीवेज के अंतिम प्रवाह स्थल नदियों या समुद्रों तक पहुंच जाते हैं। अपने सूक्ष्म आकार की वजह से ये वेस्ट वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट्स में फिल्टर नहीं हो पाते। बहुत उन्नत अपशिष्ट जल-उपचार संयत्र भी पानी में से माइक्रोबीड़्स के तमाम पार्टिकल नहीं निकाल सकता। इनमें से कई तो 0.5 मिलीमीटर या इससे भी छोटे आकार के होते हैं। जलीय और समुद्री वातावरण में पहुंच जाने के बाद, यह शेलफिश और मछलियों के इन्हें खाने की आंशका बढ़ जाती है और अंतत फूड चेन से होते हुए यही मछलियां या सी-फूड, मनुष्यों के स्वास्थ्य पर भी खतरा बन जाता है।
ऐसे बना हानिकारक!
समुद्र के माइक्रोप्लास्टिक मलबे में माइक्रोबीड्ज की निगरानी और इन्हें वहां से हटाना समस्या का सबसे मुश्किल भाग है। आलपिन की नोक बराबर या इससे भी छोटे ये कण इतने महीन होते हैं कि इन्हें नंगी आंखों से देखा तक नहीं जा सकता। पर्सनल केयर प्रॉडक्ट्स से माइक्रोबीड्स पर प्रतिबंध ही जलमार्गों से इस प्लास्टिक के कचरे को हटाने का बुनियादी कदम कहा जा रहा है। माइक्रोप्लास्टिक के किसी भी दूसरे रूप की तरह माइक्रोबीड्स भी न केवल दशकों से लेकर सदियों तक नष्ट नहीं होते बल्कि अपने आसपास के पानी में कैमिकल पॉल्यूशन का खतरा भी पैदा कर देते हैं। इसके समुद्री स्तनपायियो, समुद्री पक्षियों, मछलियों, कछुओं और अकशेरुकियों में पाए जाने की पुष्टि करती हुई भी सैकड़ों रिसर्च आ चुकी है। कुछ देशों में इन्हें बैन कर दिया है, वहीं कई कंपनियां खुद इन्हें धीरे-धीरे बाहर कर रही हैं।