मरने से पहले मरीज को तड़पने के लिए छोड़ दिया जाता सुशीला का कहना है कि इलाज के समय इन लोगों के साथ दुर्व्यवहार होता है। सोचने वाली बात यह है कि बीमार के साथ सही व्यवहार नहीं होगा तो वह एकदम टूट जाएगा। इन एचआईवी पीड़ितों के साथ भी ऐसा व्यवहार होता है। एक मरीज को डॉक्टर से बहुत उम्मीद होती है, लेकिन मरने से पहले मरीज को तड़पने के लिए छोड़ दिया जाता है।
37 बॉयज और 19 गर्ल्स सुशीला ने बताया कि उनके पास अभी वर्तमान में 37 एचआईवी पॉजिटिव लड़के और 19 एचआईवी पॉजिटिव लड़कियाँ हैं जिनके हक के लिए हम लड़ाई लड़ रहे है। इसके साथ रिहॉन प्रोजेक्ट भी चल रहे है।
एचआईवी पॉजिटिव बच्चों का आश्यिाना शहर में एचआईवी पॉजिटिव बच्चों के लिए आश्यिाना है ‘आश्रय’। सुशीला ने बताया कि अगर बच्चा एचआईवी नेगेटिव है तो कई चाइल्ड होम बच्चे को रखने के लिए तैयार हो जाते हैं, लेकिन यदि बच्चा एचआईवी पॉजिटिव है तो कोई चाइल्ड होम उसे अपने यहां रखने को तैयार नहीं होता। ऐसे में ‘आश्रय केयर होम’ बच्चों का आश्रय है जहां बच्चों के लिए रहने, खाने पीने की सभी सुविधाएं मौजूद हैं।
मां और पति से मिली समाज की सोच को बदलने प्रेरणा सुशीला ने बताया कि समाज की सोच को बदलने प्रेरणा उनको प्रेरणा उनकी मां और पति से मिली। उन्होंने बताया जब मैंने पॉजिटिव महिलाओं को तिरस्कृत होते देखा तो मैंने इनके हक की लड़ाई लड़ने के लिए सोच लिया था, तब परिवार ने उनका साथ दिया।
सुशीला ने बताया कि इन बच्चों को जब भी चोट लगती है तो मैं खुद इनके दवाई लगाती हूं। कई लोगों ने भी कहा तुम्हे एड्स हो जाएगा। लेकिन मेरा मानना है कि मरना तो एक दिन सभी को है, क्यों न एचआईवी पीड़ितों की सेवा कर अपना जीवन सार्थक किया जाए।
सुशीला ने बताया कि इन बच्चों को जब भी चोट लगती है तो मैं खुद इनके दवाई लगाती हूं। कई लोगों ने भी कहा तुम्हे एड्स हो जाएगा। लेकिन मेरा मानना है कि मरना तो एक दिन सभी को है, क्यों न एचआईवी पीड़ितों की सेवा कर अपना जीवन सार्थक किया जाए।
अब बदल रहा समाज का नजरिया सुशिला का कहना है कि एचआईवी पॉजिटिव लोगों के लिए लड़ना काफी चुनौतीपूर्ण काम है, क्योंकि हमारे समाज एचआईवी पॉजिटिव लोगों को नहीं अपनाता। हालाकि पहले की अपेक्षा आज लोगों की सोच में काफी बदलाव आया है। जिस दिन समाज इन बच्चों और लोगों को अपनाने लग जाएगा उस दिन सही मायने में जीत होगी।