मंजू ने बताया, ‘ईशान चार-पांच साल का था, तब हमें पता चला कि उसे ऑटिज्म है। उस समय वह प्ले स्कूल में जाता था। लेकिन, बोल नहीं पाता था। आई-कॉन्टेक्ट नहीं कर पाता था। डॉक्टर्स ने बताया कि उसे ऑटिज्म है। मेरी हाउसिंग बोर्ड में सरकारी नौकरी है। लेकिन, मेरे लिए बेटा प्राथमिक है और नौकरी द्वितीयक। धीरे-धीरे इलाज के बाद उसके व्यवहार में बदलाव आने लगा। तब बनीपार्क स्थित एक स्कूल में स्पेशल टीचर का पता लगने पर उसे स्कूल बिठाया।
जैसे मेहनत का फल मिल गया बनीपार्क स्थित स्कूल में एडमिशन करनवाने के बाद सबसे बड़ी बात उसे लाने ले जाने की थी। लेकिन बेट के आऐ ये परेशानी मुझे छोटी लगी उस दिन से रोजाना उसे 15 किलोमीटर दूर छोडऩे और लेने जाती हूं। ईशान को एक मिनट के लिए भी अकेला नहीं छोड़ सकते। इसीलिए कई बार बिना भुगतान की छुट्टियां ली है। इस साल दसवी कक्षा थी, सो पूरा साल ही छुट्टी ले ली। वह स्कूल में पढ़ता है, फिर उसे घर पर पढ़ाती हूं। जब उसने 86 प्रतिशत हासिल किए, तब लगा जैसे मेहनत का फल मिल गया।
मां भी हूं और दोस्त भी मंजू ने बताया कि मैं ईशान की मां भी हूं आर दोस्त भी। ईशान का कोई दोस्त नहीं हैं। इसलिए मैं ही उसकी दोस्त बन गई हूं। उसे बैडमिंटन खेलना हो या साइकिल चलानी हो, मैं ही उसके साथ जाती हूं।