जनता को सही राह दिखाने वाले नेता, जब वोटबैंक की सियासत में उलझी पार्टी बन जाएं तो सड़कों पर वही होता है जो आज देश के कई हिस्सों में दिन भर हुआ। गुरुग्राम की घटना को ही लीजिए,बच्चों की बस पर पथराव हो गया। इसे एक घटना भर मत मान लीजिएगा क्योंकि बच्चों के जेहन में इस घटना ने भी देश की एक छवि उकेर दी है। ..डर के साए में, इन बच्चों ने सीखा है कि अपनी मांगों को मनवाने का क्या तरीका होना चाहिए ? ये बात ज्ञान की किताबी बातों से बिल्कुल अलग है…जिसे उन्होंने आज जिदंगी की पाठशाला से सीखा है। बच्चों की बस पर हमले के मामले में करणी सेना कह रही है कि इस घटना में उनका हाथ नहीं। तो फिर ये भी मान लीजिए कि आंदोलन पर अब उनका भी नियंत्रण नहीं रहा।
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इस पूरे मामले में नेताओं की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगा लीजिए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल करने का एक भी बयान नहीं आता मगर एक फिल्म को न लगाने के मल्टीप्लेक्स मालिकों के ट्विट खूब रिट्वीट किए जा रहे हैं। नेता और उनकी सरकारें मानो बता रही हों कि देखिए सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा वो कहा,लेकिन हमने किस हद तक जाकर, सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियां उड़ा दी, आदरणीय वोटर,ये बात अपने वोट बैंक के खाते में जरूर लिख लीजिएगा। मुद्दा एक संजय लीला भंसाली नहीं, मुद्दा एक फिल्म भी नहीं है। लिखी गई बातों को किसी फिल्म की पैरोकारी या विरोध के रूप में कतई मत लीजिएगा। मुद्दा सिर्फ ये है कि लोकतंत्र चलेगा कैसे ? लोकतंत्र में कोई मांग करता है तो सरकारों को क्या करना चाहिए ? सरकारों का पक्ष सुनने के बाद सुप्रीम कोर्ट कोई आदेश देता है तो उस पर क्या होना चाहिए ? विरोध और आदेश के बीच संतुलन साधने में क्यों जानबूझकर नाकाम होती दिखती हैं सरकारें…?
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ऐसा लगता कि उच्चतम आदेशों को भी ये दिखाने की जुर्रत हो रही है कि देखिए, हमने जो कहा था वो मान लेते तो ये न होता…हमने तो पहले से कह दिया था….संवैधानिक संस्थाएं एक-दूसरे के आदेशों का महत्व कम करती नजर आएं तो चिंता होना लाजिमी है। आज पदमावत है तो कल कोई और मुद्दा होगा…हर समूह अपनी मांगों और जरूरतों के साथ जीता है हिन्दुस्तान में… सबकी मांगों को सुनने के लिए जनप्रतिधि हैं, उसके अनुरूप काम करने के लिए सरकारें हैं और काम संवैधानिक रूप से सही है या नहीं ये बताने के लिए अदालतें हैं। लोकतंत्र में इससे अलग कोई राह निकलती हैं तो इसका मतलब क्या है ? …और इस राह पर चलने की अाजादी किस हद तक दी जा सकती है ? किस हद तक स्वीकारी जा सकती है। गुरुवार सुबह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी तक चार ट्वीट किए हैं, लेकिन पद्मावत को लेकर हिंसा का कोई ज़िक्र नहीं। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पदमावत को लेकर सीधे तौर पर कुछ नहीं लिखा है, लेकिन बुधवार रात उन्होंने गुरुग्राम में बच्चों से भरी बस पर पथराव की आलोचना करते हुए ट्वीट किया है। केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अभी तक इस मामले पर चुप्पी साधी हुई है।
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दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल बहुत दिनों बाद बोल रहे हैं। ट्वीट मार्क्सवादी पार्टी के भी आए हैं। गुजरात चुनावों के वक्त खुल कर पद्मावत का विरोध करने वाले उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने राज्य में हो रही हिंसा पर चुप्पी साध रखी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी खामोश हैं। पदमावत को राष्ट्रीय मां का दर्जा देने वाले शिवराज सिंह चौहान भी पद्मावत हिंसा पर कुछ नहीं बोल रहे। राजस्थान की मुख्यमंत्री मल्टीप्लेक्स मालिकों के फैसले को रिट्वीट कर रही हैं। इन सारे घटनाक्रम का क्या मतलब है…राष्ट्रीय वोटर्स डे पर तमाम वोटर्स को सोचना होगा…समझना होगा…मुद्दा एक अदद फिल्म के विरोध या समर्थन से परे …कुछ और हैं….वोटर्स को इस लिहाज से दूरदर्शी होना पड़ेगा…किस नेता ने क्या किया, मुद्दों को कैसे सामने रखा, कैसे जिम्मेदारी से बचे…नेशनल वोटर्स डे पर वोटर्स अपने चुनावी बही खाते में जरूर लिखकर रखना चाहिए।