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त्याग प्रतिमूर्ति कंचन देवी की जीवनी

locationजयपुरPublished: Nov 10, 2019 03:49:19 pm

Submitted by:

santosh

राजस्थान पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी की माता कंचन देवी कोठारी का रविवार को निधन हो गया।

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जयपुर। राजस्थान पत्रिका समूह के प्रधान संपादक गुलाब कोठारी की माता कंचन देवी कोठारी का रविवार को निधन हो गया। कंचन देवी कोठारी राजस्थान पत्रिका समूह के संस्थापक स्वर्गीय कर्पूर चंद कुलिश की धर्मपत्नी थीं। सेवा व परोपकार की साक्षात प्रतिमूर्ति कंचन देवी कोठारी का संपूर्ण जीवन त्यागमयी रहा। गृहस्थ जीवन बिताते हुए भी उनका तपबल सराहनीय था। अपने जीवनकाल में पैंतीस साल तक एक दिन उपवास, एक दिन भोजन यानी एकांतर तप किया था कंचन देवी कोठारी ने। त्याग से भरे जीवन का उदाहरण बताने के लिए इतना ही काफी है कि बीते पचास साल से उन्होंने नंगे पैर रहने का संकल्प ले रखा था।

 

सभी मौसम में बिना चप्पल-जूते रहने का काम सचमुच कोई तपस्विनी ही कर सकती है। एक वक्त ऐसा भी था जब वे गहनों से लकदक रहती थीं। और जब त्याग की राह थामी तो दो अंगूठी व दो चूड़ियों के अलावा सभी तरह के गहनों को तिलांजलि दे दी। स्वस्थ रहने के दौरान वे अपने घर से चौड़ा रास्ता स्थित लाल भवन में दर्शनार्थ आती रहीं। जीवन में खूब पाया, लेकिन किसी बात का अहंकार नहीं किया। अपने घर से लाल भवन जाते वक्त कोई श्रद्धालु महिला मार्ग में मिल जाती तो गाड़ी रोककर तुरंत बैठ लेतीं। जब तक वे स्वस्थ रहीं लाल भवन में प्रतिवर्ष दर्शन के लिए आती थीं।

 

खुद धर्मयात्रा करती थीं और दूसरों को भी धर्मयात्रा करवाकर पुण्य कमाती थीं। तीस वर्ष से हर साल में दो बार 9—9 दिन नवकार मंत्र का जाप करवातीं, जिसमें सैकड़ों महिलाएं शामिल होती थीं। दान पुण्य के क्षेत्र में अग्रणी रहते हुए जहां भी जाती गुप्त रुप से दान करती थीं। वे साल में दो बार 10 से 15 महिलाओं के समूह के साथ साधु—साध्वियों के दर्शन को निकलती थी। मेरी सेवा में भी पांच से सात दिन तक रहकर धर्म-ध्यान करती रहती थीं। पिछले सालों में स्वास्थ्य साथ नहीं देने से उनका यह क्रम टूटा जरूर लेकिन धर्म का मार्ग नहीं छोड़ा। नौ वर्ष से अस्वस्थ होने के कारण बिस्तर से भी उठने की स्थिति नहीं थीं। फिर भी नियमित साधु-साध्वियों की खबर फोन पर लेती रहीं।
(जैसा कि जैन मुनि शीतलराज जी महाराज ने बताया)

 

माटी के प्रति था अटूट लगाव

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राजधानी जयपुर से करीब 85 किलोमीटर दूर है गागरडू गांव। इस गांव में भी आज उदासी पसरी हुई है। दूदू उपखंड मुख्यालय से करीब 15 किलोमीटर दूरी पर स्थित इस गांव की माटी में जन्म लिया था कंचन देवी कोठारी ने। यहीं था राजस्थान पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद कुलिश का ससुराल। कहने को तो गागरडू ग्राम पंचायत मुख्यालय है। आसपास के गांवों में बड़ा भी। लेकिन इस गांव में सरकारी स्तर पर विकास के नाम पर बहुत कुछ नहीं हुआ।
वर्ष 1945 में विवाह के उपरांत भी कंचन देवी का अपने पीहर गागरडू से निरंतर जुड़ाव रहा। समूचे गांव के लिए वे बुआसा थीं। आज गांव में स्कूल से लेकर अस्पताल तक और मंदिर से लेकर श्मशान तक में जो निर्माण कार्य दिख रहा है वह कंचन देवी की बदौलत ही है। जब वे सक्रिय थीं तो भी इसी बात को लेकर चिंतित रहती थीं कि उनके गांव गागरडू के स्कूल में शिक्षक पूरे हैं अथवा नहीं और अस्पताल में डॉक्टर हैं या नहीं। जब भैंरोसिंह शेखावत प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो गागरडू की बेहतरी की मांग करते हुए वे खुद शेखावत को भी साधिकार खरी-खोटी सुनाने से नहीं चूकती थीं।
अपने पीहर गागरडू में स्कूल क्रमोन्नत कराया तो चिंता हुई कि कक्षा कक्ष पूरे नहीं। गांव वाले बताते हैं कि तत्काल अपने पिता मदन सिंह कर्नावट की स्मृति में स्थानीय राजकीय मदन सिंह कर्नावट आदर्श उच्च माध्यमिक विद्यालय में दो हॉल व पन्द्रह कमरों का निर्माण करा दिया। बाद में समस्या यहां तक आई कि गांव में आवास सुविधा बेहतर नहीं होने की वजह से शिक्षक यहां आना पसंद नहीं करते। गांव वालो की इस पीड़ा को समझते हुए कंचन देवी ने शिक्षकों के रहने के लिए विद्यालय परिसर में ही क्वार्टर बना दिए।
शाला में बच्चों के बैठने के लिए फर्नीचर समेत बिजली और पानी की व्यवस्था भी खुद के खर्चें पर की। बाद में शाला को राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में क्रमोन्नत भी करवाया। वर्तमान में स्कूल में करीब 600 बच्चे पढ़ाई करते है और 25 शिक्षकों का स्टाफ है। कंचन देवी की चिंता हमेशा यही रही कि गांव में कोई भी बिना पढ़े नहीं रहे। स्कूल ही नहीं कंचन देवी ने प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र के लिए भी भवन बनवाया। एक बड़ा हॉल, 8 बेडरूम का एक हॉल, 4 कमरे, स्टाफ के रहने के लिए 5 क्वार्टर भी बनवाए। अब इसे आदर्श राजकीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के नाम से जाना जाता है। अस्पताल की बिजली और पानी का बिल भी कई सालों तक खुद ने ही वहन किया। मरीजों की सुविधा के लिए एम्बुलेंस वाहन भी दिया। यहां एलोपैथी, आयूष और योग केंद्र की सुविधा है। इसी तरह गांव में भाई गणपतसिंह करनावट के नाम से आयुर्वेदिक अस्पताल भवन भी बनवाया।
सार्वजनिक श्मशान, धर्मशाला और खेल मैदान निर्माण

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गांव की प्राचीन बावड़ी की चार दीवारी निर्माण घाट निर्माण भी कंचनदेवी ने करवाया। बावड़ी के साथ ही बालाजी के मंदिर की भी स्थापना की और मंदिर निर्माण करवाया। इसी तरह हनुमान सागर बांध पर भी बालाजी का मंदिर बनाया। गांव के छोटे तालाब के पास पुराने कुए में ट्यूबवैल लगाया, ताकि ग्रामीणों के लिए पीने का पानी सुलभ हो सके। इनके साथ ही नृसिंहदेवजी के मंदिर और रघुनाथजी के मंदिर का मरम्मत कार्य भी करवाया।

गांव में पिता मदनसिंह करनावट की याद में सार्वजनिक शमशान बनाया। साथ ही गांव मेें धर्मशाला एवं बच्चों के लिए खेल मैदान भी बनाया। गांव में दूरदराज से पढ़ने के लिए गांव आने वाले बच्चों के लिए छात्रावास निर्माण करवाया। यह अब राजकीय अम्बेडकर छात्रावास के नाम से संचालित है। इनके साथ ही गांव में पावर हाउस की स्थापना, रोडवेज संचालन सुविधा, बीसलपुर पानी सप्लाई, पक्की सडक़ निर्माण एवं सार्वजनिक कुओं के निर्माण जैसे कई महत्वपूर्ण कार्यों में सहयोग किया। यह अपनी जन्मभूमि से लगाव का ही नतीजा था कि विवाह के सालों बाद भी गांव की बुआजी कंचन देवी गागरडू की खैर-खबर लेती रहीं। कभी खुद गागरडू पहुंच जाती तो कभी गांव से जयपुर आने वालों से गांव में सुविधाओं के बारे में पड़ताल करती रहती। उम्र के इस पड़ाव पर आने के बाद व सेहत साथ नहीं देने से पिछले कुछ सालों से उनका यह क्रम थम सा गया था।
दादी की रसोई

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पाक कला में कंचन देवी कोठारी जितनी निपुण थीं उतनी ही खान-पान की मनुहार करने वाली भी थीं। पत्रिका के कार्मिक हों या फिर अपने ससुराल सोडा व पीहर गागरडू से आने वाले। उनके घर जो भी आता वह कंचन देवी के हाथों बनाए स्वादिष्ट भोजन का स्वाद जरूर लेता। ना-नुकर करने वालों से वे जिद कर लेती थीं कि घर आए हो तो बिना खाए नहीं जाना।
परिवार में भी सबको इसके लिए ताकीद कर रखा था। घर में कंचन देवी के बनाए व्यंजनों का अलग ही स्वाद होता था। और, लाजिमी भी है। जो व्यंजन दादी के हाथ के बनाए हों तो उनका टेस्ट तो लाजबाब होगा ही। कंचन देवी की पाक कला घर-घर पहुंचे इसी मकसद से राजस्थान पत्रिका समूह ने उनके बनाए व्यंजनों को स्वादिष्ट बनाने के टिप्स को पुस्तक का रूप देने का निर्णय किया।
ऐसे में कंचन कोठारी की लिखी पुस्तक ‘दादी की रसोई’ तैयार हुई। प्रसिद्ध एड गुरू पीयूष पांडे ने इस पुस्तक का विमोचन किया। इस पुस्तक के दो भाग प्रकाशित हो चुके हैं। दादी की रसोई में खास तौर से राजस्थानी व्यंजनों को तैयार करने की विधि सरल शब्दों में बताई गई है। कहते भी हैं कि घर का खाना तो घर का ही होता है। कंचन देवी घर पर जो व्यंजन तैयार कर मेहमानवाजी करती रहीं उनके स्वाद का समावेश दादी की रसोई पुस्तक में भी है। वैसे भी हमारे यहां कहते भी हैं- ‘जैसा खाए अन्न वैसा होय मन’।
‘दादी की रसोई’ पुस्तक केवल अलग-अलग व्यंजन बनाने की विधियां ही नहीं बतातीं बल्कि यह भी बताती है कि कौनसे मौसम में क्या खाना चाहिए और क्या नहीं, क्योंकि भोजन का सीधा संबंध हमारे बर्ताव से भी है। कंचन कोठारी अन्न को देवता मानती थीं। उसका अपमान, मुंह बिगाडऩा आदि तो कतई पसन्द नहीं है। झूठा किसी को छोड़ने नहीं देती थीं। खाना शुरू करने से पहले अग्निदेव को भोग चढ़ाकर प्रसाद खिलाती हैं। स्वयं खाने वाले के पास बैठकर, मनुहार के साथ खाना खिलाती थीं। शुद्धता का ध्यान पूजा समान होता है। बर्तनों की सफाई का ध्यान, खाने वाले तथा खिलाने वाले की शुद्धता, जूते पहनकर खाना न खाना, झूठे हाथों से खाना नहीं उठाना जैसे अनेक नियम तो आज भी परिवार में लागू हैं।
हैरत यह जानकार होती है कि वे स्वयं बहुत कम भोजन करती थीं। एक दिन छोड़कर एक दिन भोजन करने का नियम बरसों तक रहा। पूरे दिन भूखे रहकर भी जायकेदार भोजन बनाना उनका स्वाभाविक गुण था। खुद को स्वाद से दूर रखकर दूसरों के लिए स्वादिष्ट भोजन तैयार करना सचमुच किसी कठोर साधना से कम नहीं था। यों तो कंचन कोठारी ने कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी लेकिन राजस्थान की पारंपरिक पाक कला में वे एक चलता फिरता विश्वविद्यालय थी।
धारा प्रवाह से

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कंचन देवी से वर्ष 1945 में दाम्पत्य सूत्र में बंधने का जिक्र राजस्थान पत्रिका समूह के संस्थापक कर्पूर चंद कुलिश ने अपने आत्मकथ्य ‘धाराप्रवाह’ में यों किया था। ‘जीवन साथी या भावी जीवन की कल्पना तो बहुत बड़ी-बड़ी बातें हैं। उस वक्त न तो मेरे सामने कोई भूमिका थी और न ही मानस था। स्पष्ट शब्दों में कहूं तो पत्नी कंचन देवी के चयन में मेरा कोई योगदान नहीं था। उन्नीस वर्ष की उम्र थी मेरी शादी के वक्त। आज के हिसाब से यह उम्र छोटी मानी जा सकती है। पर उस जमाने में इस उम्र में शादियां हो जाती थीं।’
मुझे ठीक से याद नहीं है। पर हां.. किसी काम से अजमेर गया था तो पिताजी का आदेश हुआ कि लौटते हुए गागरडू होता आऊं। यहां ताऊ जी का ससुराल था। नंगे सिर नहीं जाऊं यह विशेष निर्देश था। मैं अजमेर से लौटता हुआ गागरडू चला गया। साफा पहनकर गया था। मुझे देखकर उन्होंने बातचीत भी पक्की कर दी, जबकि मैंने शादी से पहले अपनी पत्नी को देखा तक नहीं था। बैलगाड़ियों में बैठकर मेरी बारात गई थी।
‘मेरी पत्नी आज एक तपस्विनी मानी जाती है। उसका आचार-विचार जैन धर्म के अनुसार होता है लेकिन अन्य परिजनों की मान्यताओं पर कुछ थोपना या बाधा देना नहीं चाहती। दीन-दुखियों की सेवा में वह हम सबसे बढ़कर है। मेरे परिवार की समाज में हैसियत के प्रभाव का उपयोग मेरी पत्नी खूब करती है। यह उपयोग वह दूसरों की सहायता अथवा जनहित के काम में करती है। इसी प्रभाव का उपयोग कर उसने अपने पीहर में एक उच्च माध्यमिक विद्यालय और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र बना दिए।
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