लालकृष्ण आडवाणी : पार्टी पहुंचाई अर्श पर खुद को नेपथ्य
07 बार लोकसभा सांसद, 4 बार राज्यसभा सदस्य, 2002-2004 तक उप प्रधानमंत्री रहे आडवाणी 2009 में पीएम पद के भाजपा के घोषित उम्मीदवार थे। लेकिन सरकार यूपीए की बन गई, ऐसे में वे पीएम इन वेटिंग रह गए। 2014 में उनके ही राजनीतिक शिष्य नरेंद्र मोदी पीएम पद के पार्टी के उम्मीदवार घोषित हो गए। बाद में आडवाणी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह नहीं मिली। दूसरा मौका राष्ट्रपति बनने का आया, पर इसमें भी वे पिछड़ गए।
मंडल के मुकाबले कमंडल
1984 के चुनाव में भाजपा की बड़ी हार के बाद उन्होंने नेतृत्व संभाला था। राम मंदिर आंदोलन को हवा दी व रथ यात्रा के जरिए वोटरों को पार्टी की ओर मोड़ा। इसे तत्कालीन पीएम वीपी सिंह के मंडल कमीशन के मुकाबले कमंडल का मास्टर स्ट्रोक कहा गया था। आडवाणी के करिश्मे के कारण 1996 में पहली बार भाजपानीत सरकार बनी व अटल बिहारी वाजपेयी पीएम। 1998 में भी आडवाणी ने ही वाजपेयी का नाम आगे बढ़ाया।
आडवाणी 91 साल के हो चुके हैं। 2014 के चुनावों में भाजपा की जीत के बावजूद वो राजनीति में सक्रिय नहीं रहे। इसके लिए यह भी आरोप लगते रहे हैं कि मोदी सरकार में उनकी उपेक्षा हुई है।
07 बार लोकसभा सांसद, 4 बार राज्यसभा सदस्य, 2002-2004 तक उप प्रधानमंत्री रहे आडवाणी 2009 में पीएम पद के भाजपा के घोषित उम्मीदवार थे। लेकिन सरकार यूपीए की बन गई, ऐसे में वे पीएम इन वेटिंग रह गए। 2014 में उनके ही राजनीतिक शिष्य नरेंद्र मोदी पीएम पद के पार्टी के उम्मीदवार घोषित हो गए। बाद में आडवाणी को केंद्रीय मंत्रिमंडल में भी जगह नहीं मिली। दूसरा मौका राष्ट्रपति बनने का आया, पर इसमें भी वे पिछड़ गए।
मंडल के मुकाबले कमंडल
1984 के चुनाव में भाजपा की बड़ी हार के बाद उन्होंने नेतृत्व संभाला था। राम मंदिर आंदोलन को हवा दी व रथ यात्रा के जरिए वोटरों को पार्टी की ओर मोड़ा। इसे तत्कालीन पीएम वीपी सिंह के मंडल कमीशन के मुकाबले कमंडल का मास्टर स्ट्रोक कहा गया था। आडवाणी के करिश्मे के कारण 1996 में पहली बार भाजपानीत सरकार बनी व अटल बिहारी वाजपेयी पीएम। 1998 में भी आडवाणी ने ही वाजपेयी का नाम आगे बढ़ाया।
आडवाणी 91 साल के हो चुके हैं। 2014 के चुनावों में भाजपा की जीत के बावजूद वो राजनीति में सक्रिय नहीं रहे। इसके लिए यह भी आरोप लगते रहे हैं कि मोदी सरकार में उनकी उपेक्षा हुई है।
सोनिया गांधी : विदेशी के तमगे ने छीना अवसर…
20 साल से लोकसभा सांसद हैं यूपीए चेयरपर्सन, सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहीं यूपीए अध्यक्ष सोनिया किंगमेकर रहीं, लेकिन खुद पीएम नहीं बन सकीं। वर्ष 2004 में एनडीए को हराने के बाद कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया का नाम सबसे आगे था। लेकिन उस समय विपक्ष ने विदेशी पीएम के नाम पर इसका विरोध शुरू कर दिया। ऐसे में सोनिया ने स्वयं आगे आकर अपनी जगह डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया।
राजनीति में नहीं आना चाहती थीं
पति राजीव व सास इंदिरा गांधी की हत्या के कारण सोनिया सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहती थीं। शुरुआती दौर में इसके लिए साफ इनकार भी कर दिया था। लेकिन 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली और पार्टी को नेहरू-गांधी परिवार के किसी चेहरे को सामने लाने की जरूरत महसूस हुई। तब 1997 में सोनिया ने पार्टी की सदस्यता ली। फिर 1998 में वे कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं व दिसंबर 2017 तक पद पर रहीं।
हालांकि यूपीए के 10 वर्ष के शासनकाल में कई बार सोनिया के पीएम बनने की सुगबुगाहट बनी रही। पिछले करीब दो वर्ष से वे स्वास्थ्य कारणों से थोड़ा कम सक्रिय रहीं। इस बार भी वे रायबरेली (उत्तर प्रदेश) सीट से प्रत्याशी घोषित की गई हैं।
20 साल से लोकसभा सांसद हैं यूपीए चेयरपर्सन, सबसे ज्यादा समय तक कांग्रेस अध्यक्ष रहीं यूपीए अध्यक्ष सोनिया किंगमेकर रहीं, लेकिन खुद पीएम नहीं बन सकीं। वर्ष 2004 में एनडीए को हराने के बाद कांग्रेस की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए सोनिया का नाम सबसे आगे था। लेकिन उस समय विपक्ष ने विदेशी पीएम के नाम पर इसका विरोध शुरू कर दिया। ऐसे में सोनिया ने स्वयं आगे आकर अपनी जगह डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाया।
राजनीति में नहीं आना चाहती थीं
पति राजीव व सास इंदिरा गांधी की हत्या के कारण सोनिया सक्रिय राजनीति में नहीं आना चाहती थीं। शुरुआती दौर में इसके लिए साफ इनकार भी कर दिया था। लेकिन 1996 के आम चुनाव में कांग्रेस को करारी हार मिली और पार्टी को नेहरू-गांधी परिवार के किसी चेहरे को सामने लाने की जरूरत महसूस हुई। तब 1997 में सोनिया ने पार्टी की सदस्यता ली। फिर 1998 में वे कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनी गईं व दिसंबर 2017 तक पद पर रहीं।
हालांकि यूपीए के 10 वर्ष के शासनकाल में कई बार सोनिया के पीएम बनने की सुगबुगाहट बनी रही। पिछले करीब दो वर्ष से वे स्वास्थ्य कारणों से थोड़ा कम सक्रिय रहीं। इस बार भी वे रायबरेली (उत्तर प्रदेश) सीट से प्रत्याशी घोषित की गई हैं।
ज्योति बसु : ऐतिहासिक भूल जो बनी रही ज्योति के लिए शूल
23 वर्ष (1977-2000) तक लगातार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे
हो गया था विरोध
ज्योति बसु ने देश की राजनीति में सीमित उपस्थिति के बाद भी माकपा का ऐसा प्रभुत्व कायम किया कि पीवी नरसिम्हाराव की सरकार जाने के बाद 1996 में उनको पीएम पद का प्रस्ताव मिल गया। पार्टी के अंतर्विरोध के चलते वे पीएम नहीं बन पाए। तब बसु ने इसे पार्टी की ऐतिहासिक भूल बताया था। इसके बाद पार्टी की ताकत भी घटती गई।
माकपा-भाकपा गठबंधन को किया मजबूत
बसु के बारे में कहा जाता है कि वे कम्युनिस्ट कम व्यावहारिक समाजवादी नेता ज्यादा थे। लंदन से कानून की पढ़ाई करने के बाद जब वे पश्चिम बंगाल की राजनीति में आए तो सफलता की सीढिय़ां लगातार चढ़ते गए।
वर्ष 1977 में देश में जनता पार्टी और पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हुआ। इधर केंद्र में सरकार के पतन के बाद जनता पार्टी खंड-खंड हो गई। लेकिन बसु ने माकपा और भाकपा के गठबंधन को मजबूत कर गढ़ बना दिया। उनके पास बंगाल में वाम दलों को साथ रखने का लंबा अनुभव था। ऐसे में केंद्र की राजनीति में अस्थिर गठबंधन को स्थिर बनाए रखना चुनौतीपूर्ण काम था। इसलिए भी बसु का नाम सर्वमान्य रूप में सामने आया था। ज्योति बसु की राजनीतिक और प्रशासनिक सूझ-बूझ ने उन्हें दूसरों से अलग बनाया।
23 वर्ष (1977-2000) तक लगातार पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे
हो गया था विरोध
ज्योति बसु ने देश की राजनीति में सीमित उपस्थिति के बाद भी माकपा का ऐसा प्रभुत्व कायम किया कि पीवी नरसिम्हाराव की सरकार जाने के बाद 1996 में उनको पीएम पद का प्रस्ताव मिल गया। पार्टी के अंतर्विरोध के चलते वे पीएम नहीं बन पाए। तब बसु ने इसे पार्टी की ऐतिहासिक भूल बताया था। इसके बाद पार्टी की ताकत भी घटती गई।
माकपा-भाकपा गठबंधन को किया मजबूत
बसु के बारे में कहा जाता है कि वे कम्युनिस्ट कम व्यावहारिक समाजवादी नेता ज्यादा थे। लंदन से कानून की पढ़ाई करने के बाद जब वे पश्चिम बंगाल की राजनीति में आए तो सफलता की सीढिय़ां लगातार चढ़ते गए।
वर्ष 1977 में देश में जनता पार्टी और पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी का शासन स्थापित हुआ। इधर केंद्र में सरकार के पतन के बाद जनता पार्टी खंड-खंड हो गई। लेकिन बसु ने माकपा और भाकपा के गठबंधन को मजबूत कर गढ़ बना दिया। उनके पास बंगाल में वाम दलों को साथ रखने का लंबा अनुभव था। ऐसे में केंद्र की राजनीति में अस्थिर गठबंधन को स्थिर बनाए रखना चुनौतीपूर्ण काम था। इसलिए भी बसु का नाम सर्वमान्य रूप में सामने आया था। ज्योति बसु की राजनीतिक और प्रशासनिक सूझ-बूझ ने उन्हें दूसरों से अलग बनाया।
प्रणब मुखर्जी : प्रणब तीन बार नहीं ले पाए प्रधानमंत्री का प्रण
13 वें राष्ट्रपति रहे, वित्त, रक्षा व विदेश मंत्री भी रहे जीत नहीं सके विश्वास
प्रणब का पीएम बनने का सपना तीन बार टूटा। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब उनके पास पीएम बनने का मौका था। 2004 में भी बाजी उनसे फिसलकर मनमोहन सिंह के हाथ लगी। 2011-12 में केंद्र की यूपीए-2 भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी। तब कांग्रेस में कई नेता प्रणब को पीएम बनाना चाहते थे, पर यूपीए अध्यक्ष सोनिया ने राष्ट्रपति के लिए उनका नाम आगे कर दिया।
कांग्रेस से अलग होने से कमजोर हुई दावेदारी
जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तब राजीव गांधी पश्चिम बंगाल में थे। प्रणब भी साथ थे। खबर मिलते ही वहां से दोनों एक ही प्लेन से दिल्ली के लिए रवाना हुए थे। लेकिन गांधी परिवार के प्रति सहानुभूति के कारण राजीव को पीएम बनाया गया।
तभी से प्रणब और उनके बीच दरार डालने की कोशिश की जाती रही। नाराज होकर प्रणब ने अलग पार्टी बना ली। वे चार साल तक कांग्रेस से बाहर रहे। बाद में समझौता हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी उनसे दूर ही रही। 2004 के चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई, लेकिन तब सोनिया ने उन्हें नजरअंदाज करके मनमोहन सिंह को पीएम बना दिया।
प्रणब राष्ट्रपति तो बन गए, पर पीएम नहीं बन पाए। वे अपने राजनीतिक कौशल से पार्टी के कद्दावर नेता रहे, इसके बावजूद पीएम पद के लिए विश्वास नहीं जीत पाए। अब वे सक्रिय राजनीति से दूर हैं।
13 वें राष्ट्रपति रहे, वित्त, रक्षा व विदेश मंत्री भी रहे जीत नहीं सके विश्वास
प्रणब का पीएम बनने का सपना तीन बार टूटा। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई, तब उनके पास पीएम बनने का मौका था। 2004 में भी बाजी उनसे फिसलकर मनमोहन सिंह के हाथ लगी। 2011-12 में केंद्र की यूपीए-2 भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी। तब कांग्रेस में कई नेता प्रणब को पीएम बनाना चाहते थे, पर यूपीए अध्यक्ष सोनिया ने राष्ट्रपति के लिए उनका नाम आगे कर दिया।
कांग्रेस से अलग होने से कमजोर हुई दावेदारी
जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई थी तब राजीव गांधी पश्चिम बंगाल में थे। प्रणब भी साथ थे। खबर मिलते ही वहां से दोनों एक ही प्लेन से दिल्ली के लिए रवाना हुए थे। लेकिन गांधी परिवार के प्रति सहानुभूति के कारण राजीव को पीएम बनाया गया।
तभी से प्रणब और उनके बीच दरार डालने की कोशिश की जाती रही। नाराज होकर प्रणब ने अलग पार्टी बना ली। वे चार साल तक कांग्रेस से बाहर रहे। बाद में समझौता हुआ, लेकिन प्रधानमंत्री की कुर्सी उनसे दूर ही रही। 2004 के चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई, लेकिन तब सोनिया ने उन्हें नजरअंदाज करके मनमोहन सिंह को पीएम बना दिया।
प्रणब राष्ट्रपति तो बन गए, पर पीएम नहीं बन पाए। वे अपने राजनीतिक कौशल से पार्टी के कद्दावर नेता रहे, इसके बावजूद पीएम पद के लिए विश्वास नहीं जीत पाए। अब वे सक्रिय राजनीति से दूर हैं।
चौधरी देवीलाल : प्रधानमंत्री की बजाय इन्हें भायी ताऊ की ‘पदवी’
02 बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे, देश के छठे उप प्रधानमंत्री भी
चौंकाने वाला फैसला
वर्ष 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा में संसदीय दल ने देवीलाल को पीएम पद के लिए अपना नेता चुन लिया था। शपथ की औपचारिकता शेष थी। लेकिन देवीलाल के फैसले से सब सन्न रह गए। तब उन्होंने प्रस्ताव रखते हुए कहा, मैं सबसे बुजुर्ग हूं, मुझे सब ताऊ कहते हैं, मुझे ताऊ बने रहना ही पसंद है और मैं यह पद विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंपता हूं।
आपातकाल में 19 माह जेल में रहे
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देवीलाल कांग्रेस के रास्ते राजनीति में आए। उन्होंने हरियाणा को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन भी चलाया। 1966 में हरियाणा राज्य अस्तित्व में आया। 1971 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी।
आपातकाल में वे 19 माह जेल में रहे। 1977 में जनता पार्टी की सरकार में मुख्यमंत्री बने और 1979 तक इस पद रहे। 1980 में सांसद चुने गए। 1982 में फिर हरियाणा की राजनीति में लौटे। इसी दौरान उन्होंने लोकदल का गठन किया। 1987 में 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा की 85 सीटें जीत मुख्यमंत्री बने।
1989 में विपक्षी दलों के राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल हो गए। 1989 में वे सीकर (राजस्थान) व रोहतक (हरियाणा) लोकसभा सीट से सांसद चुने गए। वे वीपी सिंह व चंद्रशेखर सरकार में उप प्रधानमंत्री रहे। उनका इतने बड़े पद पर रहते हुए भी खेतों में आना-जाना था।
02 बार हरियाणा के मुख्यमंत्री रहे, देश के छठे उप प्रधानमंत्री भी
चौंकाने वाला फैसला
वर्ष 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा में संसदीय दल ने देवीलाल को पीएम पद के लिए अपना नेता चुन लिया था। शपथ की औपचारिकता शेष थी। लेकिन देवीलाल के फैसले से सब सन्न रह गए। तब उन्होंने प्रस्ताव रखते हुए कहा, मैं सबसे बुजुर्ग हूं, मुझे सब ताऊ कहते हैं, मुझे ताऊ बने रहना ही पसंद है और मैं यह पद विश्वनाथ प्रताप सिंह को सौंपता हूं।
आपातकाल में 19 माह जेल में रहे
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी देवीलाल कांग्रेस के रास्ते राजनीति में आए। उन्होंने हरियाणा को अलग राज्य बनाने के लिए आंदोलन भी चलाया। 1966 में हरियाणा राज्य अस्तित्व में आया। 1971 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी।
आपातकाल में वे 19 माह जेल में रहे। 1977 में जनता पार्टी की सरकार में मुख्यमंत्री बने और 1979 तक इस पद रहे। 1980 में सांसद चुने गए। 1982 में फिर हरियाणा की राजनीति में लौटे। इसी दौरान उन्होंने लोकदल का गठन किया। 1987 में 90 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा की 85 सीटें जीत मुख्यमंत्री बने।
1989 में विपक्षी दलों के राष्ट्रीय मोर्चा में शामिल हो गए। 1989 में वे सीकर (राजस्थान) व रोहतक (हरियाणा) लोकसभा सीट से सांसद चुने गए। वे वीपी सिंह व चंद्रशेखर सरकार में उप प्रधानमंत्री रहे। उनका इतने बड़े पद पर रहते हुए भी खेतों में आना-जाना था।
अर्जुन सिंह : ‘एक दिन के सीएम’ रहे पर नहीं बन सके पीएम
03 बार मध्य प्रदेश के सीएम रहे, पंजाब के राज्यपाल भी बने
मौका हाथ नहीं आया
अर्जुन सिंह का राजनीति में अलग रुतबा था। राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 में अर्जुन पीएम पद के दावेदारों में थे। लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि पीवी नरसिम्हा राव पीएम बन गए। वर्ष 2004 में सोनिया के पीएम बनने से इनकार के बाद अर्जुन का नाम फिर उभरा। इसके बाद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए भी उनका नाम उभरता रहा, लेकिन मौका हाथ नहीं आया।
जब सीएम से सीधे बना दिया था राज्यपाल
अर्जुन 1980 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1985 में दुबारा महज एक दिन के सीएम की शपथ लेने के बाद पंजाब का राज्यपाल बनाया गया। उस समय पंजाब आतंकवाद से जूझ रहा था। लेकिन राजनीतिक कौशल के चलते एक साल के भीतर उन्होंने हरचंद सिंह लोंगोवाले से ऐतिहासिक शांति समझौता कराया।
इसके बाद वे दक्षिणी दिल्ली से सांसद चुने गए व राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल हुए। वहां से उन्हें मध्यप्रदेश का सीएम बनाकर भेजा गया। लेकिन चुरहट लॉटरी कांड में घिरने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। 1995 में उन्होंने इंदिरा कांग्रेस के नाम से नई पार्टी भी बनाई थी।
पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार में अर्जुन मानव संसाधन विकास मंत्री रहे। लेकिन 2009 में मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के दौरान उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली।
03 बार मध्य प्रदेश के सीएम रहे, पंजाब के राज्यपाल भी बने
मौका हाथ नहीं आया
अर्जुन सिंह का राजनीति में अलग रुतबा था। राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 में अर्जुन पीएम पद के दावेदारों में थे। लेकिन परिस्थितियां ऐसी बनीं कि पीवी नरसिम्हा राव पीएम बन गए। वर्ष 2004 में सोनिया के पीएम बनने से इनकार के बाद अर्जुन का नाम फिर उभरा। इसके बाद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के लिए भी उनका नाम उभरता रहा, लेकिन मौका हाथ नहीं आया।
जब सीएम से सीधे बना दिया था राज्यपाल
अर्जुन 1980 में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 1985 में दुबारा महज एक दिन के सीएम की शपथ लेने के बाद पंजाब का राज्यपाल बनाया गया। उस समय पंजाब आतंकवाद से जूझ रहा था। लेकिन राजनीतिक कौशल के चलते एक साल के भीतर उन्होंने हरचंद सिंह लोंगोवाले से ऐतिहासिक शांति समझौता कराया।
इसके बाद वे दक्षिणी दिल्ली से सांसद चुने गए व राजीव गांधी मंत्रिमंडल में शामिल हुए। वहां से उन्हें मध्यप्रदेश का सीएम बनाकर भेजा गया। लेकिन चुरहट लॉटरी कांड में घिरने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। 1995 में उन्होंने इंदिरा कांग्रेस के नाम से नई पार्टी भी बनाई थी।
पीवी नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकार में अर्जुन मानव संसाधन विकास मंत्री रहे। लेकिन 2009 में मनमोहन सिंह के दूसरे कार्यकाल के दौरान उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली।
शरद पवार : गठबंधन की सरकार नहीं बनाने की बेडिय़ां
4 बार महाराष्ट्र के सीएम, सात बार लोकसभा सांसद
एचडी देवगौड़ा सरकार गिरने के बाद पवार ही कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा थे। कोई दल चुनाव नहीं चाहता था। विकल्प यही था कि सबसे बड़े दल के नाते कांग्रेस गठबंधन सरकार बना ले, पर कांग्रेस ने पहले ही गठबंधन को ठुकरा दिया था।
4 बार महाराष्ट्र के सीएम, सात बार लोकसभा सांसद
एचडी देवगौड़ा सरकार गिरने के बाद पवार ही कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा थे। कोई दल चुनाव नहीं चाहता था। विकल्प यही था कि सबसे बड़े दल के नाते कांग्रेस गठबंधन सरकार बना ले, पर कांग्रेस ने पहले ही गठबंधन को ठुकरा दिया था।