इस भयानक यथार्थ को
जिसे हम कोरोना!कोरोना! चिल्लाते हैं
इसके हेतु हम स्वयं है
तभी बेसुध है आदमी ये चिरस्थायी तो नहीं!
जिससे भयग्रस्त हो जाए हम
परंतु एक चिंतन जरूरी है
एक संवाद पेड़- पौधों के दर्द
और उनके स्नेहिल आंसुओं के साथ
मुस्कान लाउंगा फूलों संग
संवेदना की तह तक
महसूस करूंगा
नदी, झरनों, तारों,
और तथाकथित हरी -भरी पृथ्वी को
ताकि न पनप सके कोरोना जैसी
दैत्य सम महामारियां!
निंदा, ईष्र्या- द्वेष,आदि से
तोड़ दूंगा सर्वदा रिश्ता।
रखूंगा नजर कि
बूढ़े मा- बाप खांस रहे हैं किसी कौने में
कहीं वो लाचार तो नहीं!
एक प्रेम की मधुर झिाड़की पाने को
तोड़ दूंगा आदमी के हक को मारने की युक्तियां!
सहलाने को मजबूर हो जाऊंगा
हर प्रकृति समूह को !
देखूंगा हर गली के कौने में
कि कोई भूख दहशत में
मर तो नहीं रहा है
तभी तो
एक संकल्प जरूरी है …..