कोरोना की हकीकत है
जयपुरPublished: Jul 24, 2020 09:28:05 am
कोरोना पीडि़त लोगों की मनोदशा को व्यक्त कर रही है यह रचना
कविता
राजेश कुमार भटनागर एक छींक या
खांसी के एक ठसके पर
खड़े हो जाते हैं
रोंगटे।
दिमाग मे संदेह के
तार झनझनाने लगते हैं
किससे मिले थे
कहां-कहां गए थे
हिसाब लगाने लगता है
दिमाग।
डर-डरकर सांस लेना
नियति बन गई है।
हरदम खयाल आता है
कोरोना आइसोलेशन वार्ड
या वेंटीलेटर पर
दम तोड़ती सांसों वाला
कोरोना मरीज
जो रह जाता है संसार में
निपट अकेला…
साथ होती है
अस्पताल की बदबूदार हवा
बीमार सीली दीवारें
दवाइयों की गंध
दर्द से कराहते, खांसते
कोरोना मरीज….।
तब याद आते हैं
अपना घर, गली, मोहल्ला
बाजार की रौनकें
बेटा-बेटी, नाते-रिश्तेदार
उसे घेरे रहने वाले
दोस्त यार..।
वो याद करता है-
गमलों में खिले फूल
बलखाती बेलें
छायादार नीम के पेड़
सैर पर जाने वाले उसके साथी
अखबार, दूधवाला
अपने घर की छत से टपकती
बरसात की बूंदें
उसकी आंखों में तैरता है-
बादलों में सफर करता चाँद
भोर की पहली किरण
और कभी
पत्नी की चूड़ी, कंगन
माथे की बिंदिया…।
मगर निराशा के अंधेरे
उसे घेर लेते हैं
फिर उसे दिखने लगता है
पत्नी का सूना माथा
नंगे हाथ
माथे से पुछा सिंदूर
सफेद साड़ी और
रोते-बिलखते परिजन।
फिर नीला प्लास्टिक बैग
म्युनिसिपल की गाड़ी
और उसे दफनाते
सिर्फ तीन-चार लोग।
और आंसू बहाते
उसके अपने…।
हां यह कविता नहीं
कोरोना की हकीकत है।