करीब दस साल बाद हाल ही में भारत (5-16 मार्च 2018, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र, नई दिल्ली) में आयोजित प्रतुल दाश की एकल चित्र प्रदर्शनी कला-जगत में चर्चा का विषय रही। इस मौके पर प्रतुल दाश से अभिषेक कश्यप ने बात की। प्रस्तुत है बातचीत के अंश।
आपके अनेक चित्रों में ‘स्कैफोल्डिंग’ संभवत: शहरीकरण की प्रक्रिया में निरंतर उगते कंक्रीट के जंगल के रूपक के तौर पर आया है…।
1999 में पहली बार मेरे चित्रों में ‘स्कैफोल्डिंग’ आया। भवन निर्माण में लोहे के पाइपों से बना ‘स्कैफोल्डिंग’, जैसा कि हम सब जानते हैं, टेंपररी होता है। निर्माण कार्य के बाद इसे हटा दिया जाता है। ‘स्कैफोल्डिंग’ एक सपोर्ट सिस्टम होता है जिसे अगर सही तरीके से नहीं लगाया गया तो वह पूरा ढांचा कभी भी कौलेप्स कर सकता है। ‘स्कैफोल्डिंग’ पर्यावरण, जीव जगत और मानवीय मूल्यों की कीमत पर हो रहे इसी अनियंत्रित और असंतुलित विकास का रूपक है जो यह संकेत देता है कि प्रकृति के सपोर्ट सिस्टम को नकारकर हम जो विकास की दौड़ में भाग रहे हैं, यह ढांचा कभी भी कौलेप्स हो सकता है। दूसरी ओर मेरे चित्रों में ‘स्कैफोल्डिंग’ शहरी जीवन की अनिश्चितता का भी प्रतीक है।
क्या आप कलाकार की सक्रिय सामाजिक भूमिका के पक्षधर हैं?
मैं विकास विरोधी नहीं लेकिन इसकी कोई सीमा तो हो, कोई संतुुलन तो हो। क्या यह सोचना जरूरी नहीं कि यह तथाकथित विकास किस कीमत पर हो रहा है! किसान आत्महत्या कर रहे हैं, पशु-पक्षी मर रहे हैं, बाघ, शेर, हाथी लुप्त होते जा रहे हैं। कलाकार के तौर पर इसका विरोध क्यों नहीं करना चाहिए? एक कलाकार के रूप में मेरे पास जो ‘पॉलिटिक्स ऑफ एस्थैटिक’ (सौंदर्यबोध की राजनीति) है, उसका इस्तेमाल मैं क्यों न करूं। ‘पॉलिटिक्स ऑफ एस्थैटिक’ को मैं औजार के रूप में इस्तेमाल करता हूं। शहरीकरण ने पर्यावरण, मानवीय जीवन और मूल्यों को भी बदला है।
लेकिन यह तो आप मानेंगे कि कलाकार की भूमिका सामाजिक कार्यकर्ता या राजनेता से अलग होती है? मेरा आग्रह यह नहीं कि कलाकार सामाजिक कार्यकर्ता या राजनेता बन जाएं। आप देखें, कलाकार जिस कैनवस पर चित्र बनाता है, वह कपास से बनता है। आज हर रोज महाराष्ट्र में कपास उगाने वाले किसान आत्महत्या कर रहे हैं। उनकी आत्महत्या से जो विचलित न हों, वे कलाकार कैसे हो सकते हैं भला!
बलवीर सिंह कट ने कहा था-‘अगर पत्थर तराश नहीं सकते तो उसे बर्बाद मत करो।’ मैं इसमें यह जोडूंगा कि अगर आपकी कला से किसी का भला नहीं होता फिर आपको चित्र बनाने की दरकार ही क्या है!
आर्ट सोसायटी के लिए होना चाहिए, इसको लेकर मेरे मन में कोई दुविधा नहीं। सिर्फ किसी कोठी या ऑफिस की साज-सज्जा के लिए चित्र बनाना हो तो मैं नहीं बनाऊंगा। इसलिए मैं कमीशन वर्क नहीं करता।
क्या आपकी कोई पेंटिंग या आर्ट वर्क है, जिसने व्यावहारिक तौर पर कोई असर डाला हो? मेरा एक वीडियो है-‘स्टोरी ऑफ ए लैंडस्केप’। दरअसल मैंने सोचा, ऐसा क्या करूं कि एक कलाकार के नाते सामाजिक भूमिका का भी निर्वाह हो और मुझो एस्थैटिक प्लेजर भी मिले। वीडियो में एक आदमी फोटो खींच रहा है। फोटो खींचते-खींचते आगे दिखता है कि नदी सूख रही है। एक शंखनाद होता है, ांखनाद के बाद नीला आसमान काला पड़ जाता है। सारे जलीय जंतु मर जाते हैं, नदी का पानी सूख जाता है, दलदल बन जाता है। उसमें से काले-काले कीड़े निकल कर समूचे दृश्य पर छा जाते हैं। ‘वन ड्रॉप फाउंडेशन’ ने यह वीडियो देख कर तय किया कि वे इसे उड़ीसा के गांव-गांव में दिखाएंगे। कहने का अर्थ यह कि कला के एस्थैटिक का उपयोग आप सामाजिक सरोकारों के लिए कर सकते हैं। इसके लिए नए माध्यम को चुनने और उसकी चुनौतियां स्वीकार करने के लिए हर जेनुइन कलाकार को तैयार रहना चाहिए।