उसी दिन जोधपुर में न्यायाधीश कमलकांत वर्मा को मुख्य न्यायाधीश व 11 अन्य को न्यायाधीश पद की शपथ दिलाने के साथ राजस्थान हाईकोर्ट विधिवत रूप से अस्तित्व में आया, लेकिन यह दिन आज किसी को याद नहीं है।
जब हाईकोर्ट की स्थापना हुई उस समय न मुकदमे पर तारीख पड़ती थी और न फैसले के दिन-महीनों का इंतजार करना पड़ता था। पेश होने के दिन ही मुकदमों की सुनवाई हो जाती थी। इसके विपरीत हाईकोर्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार अब मुकदमों के फैसले में कम से कम दो साल और अधिकतम पौने ग्यारह साल तक का समय लग रहा है।
नहीं होता था रजिस्ट्रार जनरल
उस समय हाईकोर्ट में रजिस्ट्रार जनरल जैसा कोई पद नहीं था, तो बीकानेर के तत्कालीन जिला न्यायाधीश जफरउल्लाह खान को विशेषाधिकारी के रूप में यह जिम्मेदारी सौंपी गई। उस समय जयपुर और जोधपुर के साथ ही कोटा और बीकानेर में भी हाईकोर्ट की बेंच थी। उदयपुर संभाग के मुकदमों की सुनवाई उदयपुर में होती थी। राजस्थान हाईकोर्ट के पहले मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ लेने से पहले कमल कांत वर्मा उदयपुर हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे थे। शुरुआत में जोधपुर से अमर सिंह जसोल एक मात्र ऐसे न्यायाधीश थे, जिनके पास विधि स्नातक की डिग्री तक नहीं थी। संविधान लागू होने पर 26 जनवरी 1950 को हाईकोर्ट न्यायाधीशों को पुन: शपथ दिलाई गई।
गहरा मेलजोल था
न्यायाधीशों का वकीलों से गहरा मेलजोल था, लेकिन मजाल किसी की जो न्यायाधीश पर उंगली उठा जाए। हालांकि उस समय भी न्यायाधीश वकीलों के साथ खेल मैदान में आमने-सामने नजर आते थे, लेकिन मुकदमों पर चर्चा तक नहीं होती थी।
तब इनको बनाया हाईकोर्ट न्यायाधीश
मुख्य न्यायाधीश कमल कांत वर्मा, न्यायाधीश लाला नवल किशोर, अमर सिंह जसोल, कंवर लाल बापना, मोहम्मद इब्राहिम, जवान सिंह राणावत, सार्दुल सिंह मेहता, दुर्गा शंकर दवे, त्रिलोचन दत्त, आनन्द नारायण कौल, के के शर्मा व खेमचंद गुप्ता
सुबह कोटा से आए थे पिताजी
‘मेरे पिताजी दुर्गा शंकर दवे उस समय हाईकोर्ट न्यायाधीश बने। शपथ के लिए सुबह कोटा से रवाना हुए थे। कभी- कभार तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के के वर्मा से भी मिलना हो जाता था। उस समय वकील और न्यायाधीशों में मिलनसारिता बहुत अधिक थी। बार के कार्यक्रम में सभी न्यायाधीश आते थे। 1958 में स्वयं भी कोर्ट जाने लगा, उस समय भी जज चेम्बर के बजाय खुले में बात करना ज्यादा पसंद करते थे। पिताजी साढ़े पांच साल हाईकोर्ट मुख्य न्यायाधीश रहे। सेवानिवृत्ति के दिन रात्रिभोज में तत्कालीन सीजेआई वांचू और राज्यपाल हुकुम सिंह दोनों आए थे। उस समय रीडर भी जज को कुछ कहता था, तो उसकी भी अच्छी बात सुनी जाती थी।’ – (जैसा कि पूर्व न्यायाधीश वी एस दवे ने बताया)
‘अगस्त 1951 में वकालत शुरु की। उस समय के न्यायाधीशों से सीखा कि किस तरह निष्पक्ष न्याय हो सकता है और राजनीति से दूर रहा जा सकता है। न्यायाधीश उस समय नए वकीलों को प्रोत्साहित करते थे। बहस का स्तर भी आज से कई गुणा बेहतर होता था।Ó- (जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश एन एम कासलीवाल ने बताया)
‘उस समय जयपुर में महिला चिकित्सालय वाली जगह पर हाईकोर्ट हुआ करता था। कोर्ट में उर्दू भाषा में काम होता था। न्यायाधीशों को गाड़ी भी नहीं मिलती थी। पिता कंवर लाल बापना को देखते थे, शनिवार को फैसला लिखाया करते थे। जब 1958 में जयपुर बेंच समाप्त हो गई थी और सभी केस जोधपुर चले गए थे, तो जोधपुर में जयपुर वालों के मुकदमे खारिज होने लगे। मेरे पिताजी उस समय कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश थे, उन्होंने उन सब मुकदमों को बहाल किया।’- (जैसा कि पूर्व महाधिवक्ता जी एस बापना ने बताया)
‘जुलाई 1950 में वकालत में आया। उस समय के जज और वकील दोनों का ही मुकाबला नहीं है। मुकदमा एक दिन में तय हो जाता था, पासओवर का तो सवाल ही नहीं। वकील अगली तारीख नहीं मांगते थे। डी एम भंडारी और वेदपाल त्यागी दोनों मेरे सीनियर थे। एक बार वकील रहते त्यागी जी किसी वजह से कोर्ट नहीं आए और सात लोगों को हत्या के मामले में सजा का था। त्यागी साहब के नहीं होने के कारण मुझे पैरवी करनी पड़ी, सामने थे न्यायाधीश कैलाश वांचू। वह मेरा पहला केस था।’- (जैसा कि पूर्व महाधिवक्ता सागरमल मेहता ने बताया)
‘न्यायाधीश कैलाश वांचू की सोच थी कि एक प्रदेश में एक ही जगह हाईकोर्ट हो। वह एक बार हो भी गया था। कोर्ट नंबर एक में बहस करना गौरव की बात होती थी, हम भी जब उसमें बहस करते थे तो अलग ही अनुभूति होती थी।’-(जैसा कि वरिष्ठ अधिवक्ता लेखराज मेहता ने बताया )
‘आजादी के बाद हाईकोर्ट की स्थापना गौरव की बात थी, यह दिवस मनाया जाना चाहिए। अब तक नहीं मनाया जाता है, लेकिन बार कौंसिल में इस दिन को मनाने का प्रस्ताव लाया जाएगा।’- सुशील शर्मा, चेयरमैन, राजस्थान बार कौंसिल