आजादी से पहले तक गुलाबीनगर के अधिकांश घरोंं और मंदिरों में गायें पाली जाती थीं। आज की तरह मवेशी तब बाजारों व सडक़ों पर स्वच्छंद विचरण करते दिखाई नहीं देते थे। सुबह-शाम दूध निकालकर गायों को बाहर खदेड़ देने जैसा वातावरण नहीं था। लावारिस पशुओं को पकडऩे वाले रस्से लेकर चौकडिय़ों और बाजारों में तैनात रहते थे। गौधन को पकडकऱ जौहरी बाजार स्थित पुरानी कोतवाली का रास्ता स्थित दवाबखाने में ले जाते। बाखड़ी और नाकारा गौधन पकड़े जाने पर गौपालक पर सख्ती बरती जाती थी। सवाई रामसिंह के शासन में स्वास्थ्य अधिकारी टीएच हैंडले को निरीक्षण के दौरान सडक़ पर गाय-बैल दिख जाता तो कर्मचारियों के खिलाफ सख्त कदम उठाते। देवर्षि कलानाथ शास्त्री के मुताबिक अधिंकाश घरों में बैलगाडिय़ां होती थीं। इसके बावजूद मजाल कि कोई बैल सडक़ पर दिख जाए! सियाशरण लश्करी के अनुसार श्री गोविंददेवजी, गोपीनाथजी, गोपालजी मंदिर सहित विभिन्न धार्मिक आश्रमों में गौदर्शन व भगवान को गौदुग्ध का भोग लगाने के लिए गायें रखी जाती थीं।
सवाई माधोसिंह तो आंख खुलते ही सबसे पहले गौदर्शन करते थे। मंदिरों, धार्मिक आश्रमों में अब पहले की तरह गाय रखना बंद सा हो गया है। मंदिरों की आय भी बढ़ी है लेकिन अब गाय नहीं रखते। जयपुर में पहली गौशाला सन् 1907 में खोली गई। उन दिनों मुम्बई के पंडित दीनदयाल शर्मा ने मोहनबाड़ी में गौधन सेवा का प्रवचन दिया था। उत्साही गौभक्तों ने मोतीडूंगरी पर उस्ताद रामनारायण का नोहरा 80 रुपए मासिक में किराए पर लेकर गौशाला खोली। सेठ खेमराम, कृष्णदास व नथमल के प्रयास से गौधन के लिए 12 हजार रुपए एकत्र हुए। सन् 1912 में प्लेग के बाद अकाल पडऩे की वजह से गायों को चराने के लिए मुंशी गिरधारीलाल ने ललवाड़ी के गोचर में चरने की इजाजत दिलवाई। बाद में जडिय़ों का रास्ता के नोहरे में गौशाला खोली गई। सूरजपोल के गोवद्र्धननाथ मंदिर के नोहरे को दवाबखाना बनाया गया। 29 दिसम्बर 1921 को पंडित शिवदीन के पुत्र रमाशंकर ने किशनपोल की पांच दुकानें गौशाला को दी।
जैन समाज ने वध के लिए जाने वाले गौधन को खरीद कर गौशाला में देना शुरू किया। सन् 1938 में डॉ. ज्वालाप्रसाद कचोलिया की पहल पर सवाई मानसिंह ने सांगानेर में बम्बाला के पास 214 बीघा भूमि में गौशाला खोली। सन् 1964 में जौहरियों ने माल की खरीद पर चार आने सैकड़ा गौशाला को देने का निर्णय किया। सेठ रामप्रसाद सोमानी के प्रयास से 1094 दुकानों पर दान पात्र रखे गए। अग्रवाल, माहेश्वरी व जडिय़ा सुनार भी विवाह में दो रुपए व नुक्ते पर एक रुपया गौशाला को देने लगे। सन् 1915 में धर्मकांटे पर तुलने वाले आभूषणों पर दो पैसे की लाग लगाई गई। समाजसेवी कन्हैयालाल घाटीवाला के प्रयास से गौसेवा ट्रस्ट बना। वर्ष 1974 में नगर परिषद के प्रशासक घनश्यामदास भारद्वाज के समय पकड़ी गायों को दवाबखाने से गौशाला भेजा जाने लगा।