यूं लगी बस खरीद पर रोक सत्ता में आते ही भाजपा सरकार ने वर्ष 2014 से 2016 तक बसों की खरीद पर रोक लगाए रखी। बस खरीद बंद होने से रोडवेज के भविष्य को लेकर खतरा बना तो वर्ष 2016 के अंत में सरकार ने अपनी तीसरी वर्ष गांठ पर 500 बसों की खरीद के लिए बजट दिया। इसके साथ ही खरीद शुरू हुई।
अनुबंध लगानी थी रोक, नहीं लगी नई बसों की खरीद की अनुमति और बजट मिलने के बाद निजी बसें अनुंबध पर लेने पर रोक लगानी थी लेकिन राजनीति फायदे के लिए सिलसिला जारी रहा। ऐसे में रोडवेज में बसों का बेड़ा करीब 5500 पर पहुंच गया। संख्या में भारी बढ़ोतरी होने से घाटा और बढ़ गया।
ऐसे ली गई निजी बसें वर्ष 2016 और 2017 में रोडवेज प्रशासन ने बसों को प्रति किमी के हिसाब से अनुबंध पर लिया। इन बस मालिकों को बस व चालक के पेटे 7.11 से 27.71 रुपए प्रति किमी तक भुगतान किया जा रहा है। सभी बसों के डीजल, परिचालक और टैक्स आदि के अन्य खर्च रोडवेज की ओर से उठाए जा रहे हैं। एक बस मालिक को बस व चालक के पेटे हर माह १ से सवा ३ लाख रुपए तक भुगतान रोडवेज कर रहा है।
उलटा काम रोडवेज में बसें बढ़ी तो निजी को हटाने की बजाय अपने ही पैंरों पर कल्हाड़ी चला दी। रोडवेज प्रशासन ने अभियान चलाकर आनन-फानन ऐसी बसों को कंडम कर दिया, जो चलने लायक थीं और काफी पैसा खर्च कर उन्हें ठीक किया जा चुका था। निजी बसों के लिए जगह बनाए रखने के लिए रोडवेज की एकसाथ ६५० से ज्यादा बसों को कंडम कर रूटों से हटा दिया गया।
इसलिए दौड़ा रहे सूत्रों के अनुसार अनुबंध पर चल रही बसों के चालक प्रति किमी रुपए मिलने से रूट पर हर जगह से सवारी लेने की बजाय दौड़ाने पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। जबकि रोडवेज की बसें हर जगह सवारी को लेने को प्राथमिकता देती रही हैं। रोडवेज के मुकाबले निजी बसों से सड़क दुर्घटनाएं भी ज्यादा हो रही हैं। सवारी लेने के लिए बस नहीं रोकने से विवाद के मामले भी ज्यादा आ रहे हैं।